संस्कृत में मध्यमदुरूष' या 'उत्तमपुरुष' सर्वनाम तीनो लिङ्ग में
समान रूप रहते हैं, शेष सभी सर्वनाम भिन्न-भिन्न रूप ग्रए करते हैं। परन्तु
हिन्दी में सभी सर्जनाच सर्वत्र प्रकल्प रहते हैं। वह जाता है-वह जाती।
हैं । संस्कृत की अपेक्षा सत्र सरलता है। संस्कृत में पञ्च' ट्’ आदि
शव्द ही तीनो लिङ्गी में समान रहते हैं, परन्तु हिन्दी के सभी संख्याच
शब्द सर्वत्र ( दोन वर्गों में ) समान रहते हैं--एक पुरु--एक स्त्री और
दो बैल’-‘दो अदि । यो एकरूपता लाम में भी हैं । झाप
शब्द भी दोनों व में समान रहता है-*य जाई --ऋः जा ' ।
अब ‘सर्जनाम' ही है, जो कि अब लग रूक- ही इन; ठक।
“अपि’ आदर के लिए बहुवचन में आता हैं--एक के लिभ भी । जब
संख्या को बहुत्व विवक्षित हो, तब स्पष्टता के लिए अरे लो’ लगा देते
हैं----आप लोग चले; मैं अा रही हैं।
| अपना शब्द स्वकीय अनों के लिए अपनों को जब चाहते है; परन्तु
हम लोग' के अर्थ में सम्बन्ध-एझन्धनभने को क्या मतलन्छ !--वनी
हम लोगों को क्या मतलब ! कहीं कता-कारक में भी; पर बहुवचन मैं और
संज्ञा-विभक्ति । ) में हित-अपन मैले चलें गे'। यह मध्य प्रदेश में चलता
हैं। यह वह' आदि से वाक्य का भी परामर्श होता है---
“बह दीद दुट्टिों की मदद करता है। यहीं उसे कर ला गा ।
थही-दीन दुखियों की मदद करने का काम । “हत्य धर्म का पालन करना
कुछ हँसी-खेल नहीं है । यद् अार-जैसे महात्मा का ही आम है। यह
यहाँ ‘काम’ को विशेषशा हैं और 'सत्य-धर्म का पालन करना इस का पर!
मृश्य है।
जद किसी संज्ञा श्रादि के साथ वृक्ष'-'अ' श्रोते हैं, तो संकेत-वाद
विशेषगू कहलाते हैं । अकेले श्राने पर इनाम' हैं ही। परन्तु विशेषण के
रूप में आने पर भी अपना काम छोड्ने नहीं हैं ।।
इङ् लेइ
अद्ध क्यां |
यह ज्ञालिक अब संत सीख रही है ।
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