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परन्तु ‘क’ '३' 'न' से भिन्न तद्धित (संबंध- प्रत्यय विशेपतः श्रवश्य सूचित करते हैं और इसलिए उनसे बने झब्द विप्रण हो सकते हैं- बनैले पशु-वन्य पशु, गॅवारू कपड़े नागपुरी संतरे—बनारसी साड़ी आदि । कभी-कभी ‘कृ’ से भी-झलनऊ के लुरबूजे लखनऊ की विशेषता इखुरळूचो में है । यदि संबंध मात्र के विशेषज्ञ मान लें, वन्न अवश्य सभी भेदक विशेद कहला । जैनी मन्त्रि हैं, जैसा कि समझे ! अष्ट्र भेद्य- भेदक तथा विशेष्य-बिय; या विश्व चिंचय है ।।

सर्वनाम

संसार के प्राणियों के नाम रखे गए। फिर लालग-अलग (यक्तिशः । सत्र के नाम रखे गए } पदार्थों के नाम से । इन सत्र के गुर्गों के तथा भावों के नाम रखे गए । मड़ा विस्तार इ या शब्दों का ! सब के अलग-अलग नाम'.-छो ज्ञा' शब्द से भी हो जाते हैं । व्यवहार में सुगमता, दुष्टता तथा सुन्दरता लाने के लिए फिर कुछ थोडे ते ऐसे शब्द गढ़े गए, जो सभी नाम के बदले आ सकें। इन्हे ‘सर्वनाम' म पिला । सब के नाम “सर्वनाम' ! राम भी अपने को ३' कहता है--'मैं घर गया और अप भी अपने को मैं कहते हैं और में उगीचे गया था। इसी तरह आप किसी को भी 'त' या 'तुम' कह सकते हैं और वह इन शब्दों से अपने आप को समझेगा। यानी मनुष्य' तथा 'म’ विन्द श्रादि शब्द्र जाति-विशेष तथा व्यक्ति विशेष् के नाम हैं। परन्तु : *** आदि शब्द किसी एक के नाम नहीं हैं, सत्र के नाम हैं। इस लिए इन्हें सदनास कहते हैं । साधार; नाक से इन में ही विश्इ है। यदि भाव में नाम न हो, हो व्यवहार टीक भट चले। अ५६ को नर म' हैं और न के ८ भित्र का नाम इस हैं। परन्तु इस दाभों के और कि हैं । अब श्राप अपने मित्र ( श्याम } से बातें कर रहें हैं -‘राम श्याम के इंढती रहा; पर इझम राम ऋो । सिल' । 'झ' दाम' शब्द बार-बाए झर फुदकते हुए कितने भद्दे लगते हैं ! प्रभु फिर भी मतलब साफ नहीं ! न जाने कौन सा ‘म’ कि ‘या’ को ढूंडला २६ ! कुछ पता चल सकता है कि कौन किसे हूँढता रहा है इसी लिए मैं और दू शब्द तें---