पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२३३

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गया; फिर भी कोई रूपान्तर नहीं । हिन्दी ने 'नासिका से नाक बनाया:

  • भासा' हे नाव नहीं; क्योंकि नाश' का भय जन-बोली में 'वास

होता है ।। यह यह दिङ-निर्देश भर है; परन्तु बहुत स्पष्ट ! प्रतिपद विस्तार नवा- भ्यासियों के विर वनेदालं पुस्तकों में सबिवरण मिले गर । | इस तरह आप देख सकते हैं कि हिन्दी मैं शब्दों को दो वर्गों में बॉट कर नपुंसक लिङ्ग का बड़ा हटा दिया गया । प्राकृत-भाषा में संस्कृत की ही रह जी7 सा भी है; अन्योंकि वहाँ शब्द-रचना वैसी ही है; विभक्तियाँ संस्कृत की ही कुछ हेर-फेर के साथ हैं-फलम् फलानि’ की ‘ल फलाई कर दिया जाता है; नं ३ को अनुस्वार; बस पल्लिङ्ग में “पुत्त जैसे रूप होते हैं । हिन्दी में स्वतंत्र भार्य प्रण किया । “पूत’ में कोई वैसी विभक्ति ई–त झादा है' ! लड़क' 'छोरा' श्रादि पृश्लू चीजें हैं। ‘फल रखा है' ल रख ६’ प्राकृत में हि’ ‘दहीई रूप होते हैं; परन्तु हिन्दी में दही' ।। संस्था की छाया भविभक्ति नहीं; इस लिए नपुंसकृत भी छूट जाती है ।

  • तों में संस्कृ का द्वित्र जरूर छूट या है, जो हिन्दी में भी बहीं हैं ।

नपुंसक-झिङ्ग का खेड़ा हट जाने से बड़ी सरलता हो गई और संस्कृत तद्रूप { इसम } तथा तद्भव शब्दों को प्रायः संस्कृत के अनुसार ही पु०-स्त्री० में रा रा हैं । तद्भव शब्दों में विशेष व्यवस्था है। नपुंसक-लिङ्ग शब्दों को गावः पुल्लिङ्ग में ही रखा गया है । इकारान्त-उकारान्त शब्द हिन्दी के रूप-शन में ( अप? ) प्रायः ॐ हीं नहीं । भाँति जैसा कोई शब्द कहीं मिल या ; जिस में लिङ्ग भेद की बात ही नहीं । संस्कृत के शब्दों को

  • रूझान्तरित किया गया हैं, वृह भ । 'इ'३' को ) हा कुर प्रायः

अकारान्त कर दिया गया हैं-‘रात्रि-रात’ और ‘बाहु बाहँ' । संस्कृत के इरान्त ( प ) शब्द कवि-सुदि आदि वर्गीय हैं ही। अप्राणिवाचक जलवि' आदि कुछ पुरा में हैं और निधि आदि कुछ स्त्रीवर्ग में । संस्कृत ॐ उनक-छि इन्ति शब्द “दधि आदि दुबई में गए हैं । तद्भव

  • द' दि ईकारान्ह भी । इकारान्त शब्द हिन्दी में प्राथः स्त्रीलिङ्ग हैं---

युक्त के ( तड़प } भी, लद्भव है और हिन्दी के अपने भो । संन्यासी, विद्यार्थी, दडी श्रादि ( संस्कृत के 'इन्-प्रत्ययान्त ) तो पु वर्ग में स्पष्ट