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जैसे विकृत रूप कभी भी नहीं होते ! जब’ ‘तब’ अदि सदा एकरूप रहेंगे ! इसके लिए ये श्रव्य' हैं । रूपान्तर हो जाए, तो फिर ‘अव्य’ नहीं। शे, चित् अव्ययों में भी से' जैसी विभक्ति लग जाती है। परन्तु ‘श्रख्यात' या क्रिया-पद में कभी भी सैला-विभक्तियाँ ‘ते’ श्रादि न लगें गी । क्रिया की विधेयता हो तो, ख्यात' और उसने उद्धेश्यता हो, तो भाव- वाद ।

संज्ञा के लिङ्ग-भेद

इस्दी में भी संज्ञा-शब्द दो भागों में बाँटे गए हैं १-पुल्लिङ्ग और २० स्त्रीलिङ्ग १ -लिङ्ग' के पहले हि' कहते थे | ‘व्यक्तिः स्त्रीपुनपुंसकादिः । पाशिनि-ब्याकर में भी शुद-लिङ्ग के लिऐ व्यक्ति' शब्द आया है-लुधि युक्त व्यक्तिचन्दने' । लिङ्ग'-चिह्न और व्यक्ति-व्यञ्जन’-शब्द का रू-विशेष व्यञ्जित करना परन्तु इन दोनों शब्दों से अच्छा ‘जाति' शब्द है-वृक्ष' झुंचासीय शब्द और ‘लता' स्त्री-जातीय शब्द है । वृक्ष' की जाति पुरुष' और 'लता' की 'जाति' स्त्री । संस्कृत में शब्दों की एक तीसरी जाति भी हैं--पुंसक' या 'लीब'। हिन्दी में क्लीवला को स्थान नहीं । याँ भूभी 'नाम' या संज्ञा शब्द दो ही श्रेणियों में विभक्त हैं-१-पुंवर्ग शौर २---स्त्री-वर्ग १ पुरुष' या 'लक' के समान जिन की बनावट है, वे

  • ” “वन’ ‘पर्वत’ अंददि शब्द दुष-जातीय, पुंबद, या ‘पुल्लिंग' कह-

लाते हैं । “स्त्री के समन्द जिन का अलैदर है, वे ‘भदी’ ‘लकड़ी’ ‘मकड़ी आदि शब्द स्त्रीजातीय, ब्लवीय, या ‘स्त्रीलिङ' कहे जाते हैं।

शब्दों की लिङ्ग व्यवस्था

ख़र यह वर्ग- बिष्नान हुआ कैसे है ऐसा जान पता है कि जब भाषा इनन्दे लगी, तब सब के पहले लोगों ने अपने-अपने घर वालों के नाम उड़े होंगे ! अ, इ, उ, ऋ मूल स्वर प्रचलित थे ! पहले ‘अ’ फिर उस का गुरु रूप ‘श्रा। लड़के का नाम 'रामः अक्कारान्त, तो लड़की का नाम कुछ गौरव से मा’ | लड़के का नाम *भारविः' ती लड़की का नाम गौरव से

  • अरुन्धती' । यो अ-आ तथा इ-ई स्त्री-पुंभेद से विभक्त हो गए। अब जड़

अाध के नाम रखे गए। ‘रामः' की तरह बो ‘पर्वतः' वृचः श्रादि हुए,