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( १३८ ) फल ) है । वह ‘सूरज की गर्मी से पता है । रमी' करणे नहीं, हेतु है। पकने का फल जो है, १ चीज का रँग बदलना, नरम हो जाना आदि, ) वह सब ‘ाश पर है; फल पर है; न पेड़ पर और न हेतु ( ‘गरमी )पर ही ।। | क्रिया के परिणाम को हमने ‘पाल' कहा है, जिसे संस्कृत-व्याकरण में

  • भाव' कह कर ‘कर्तृस्थ भाव तथा कर्मस्थ भाव' हा गया है ।

क्रिया का फल झा तो कर्ता पर, या कर्म पर; अन्य किसी भी कारक पर नहीं; इस लिए थे दो कारक ( क्रिया की दृष्टि से ) बहुत महत्वपूर्ण हैं । इन्हीं को देख कर, इन्हीं के सहारे घर में क्रिया-पद चलते हैं । शुद्ध क्रिया में लिंग, वचन श्रादि कुछ है ही नहीं ! उसे ‘भाव' कहते हैं । आप लड़की की गिनती कर सकते हैं, लिश-भेद भी समझ सकते हैं; परन्तु लड़के पानी पीते हैं। कहने से ‘पने' की झिया को कैसे गिने ? उस क्रिया ) में लिंग- भेद भी कैसे करेंगे ? परंतु भाषा में जब कोई शव्द चलेगा, तो उसका प्रयोग किसी न किसी रूप में ही तो होगा ! कोई न कोई पुरुष, बदन, लिंग बोल्टी हो जाएगा ! तो, क्रियाओं में जब अपनी ( पुरु८-बचन अादि ) कोई चीज है ही नहीं, तब उनका चलन कैसे हो ? जो समीप मिलता है, लता उसी का सहारा ले लेती है; उसी की तरह सीधे या टेढ़े-मेढ़े चलने लगती है। छोटा-बड़ी या टेढ़ा-मेड़ा, उसी की तरह अपना रूप बना लेती है । इसी तरह क्रिया प्रयोग में कत या कम का सहारा लेती हैं । कहीं कत के अनुसार उन के रूप देखे जाते हैं-- लड़का घर जाता है लड़की वर जाती है। हम घर जाते हैं। मैं घर जाता हूँ सर्वत्र कर्ता के अनुसार क्रिया के रूप हैं । लड़के ने रोटी खाई लड़कियों ने रोटी खाई तू ने रोटी खाई मैं ने रोटी खाई सब ने रोटी खाई