पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१८०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(१३५)

‘इन सब विभूतियों के कारक-विभक्ति तथा उपपद-विभक्ति' नामों से विभक्त करते हैं । जब किस विभक्ति से कारकत्व प्रकट हों, तब ‘कारक- विभक्ति' और उसले दि स्थल में उपरद-विभक्ति' कहलाती है ।। इस प्रकरण को समाल करने से पृहले हिन्दी की इस 'इ' संश्लिष्ट विभक्ति की संक्षिप्त कथा कह-सुन लेना चाहिए। संस्कृत में तृतीय विभक्ति के बहुज- चन में ‘ाल: कविभि६' जैसे रूई बनते हैं। वैदिक संस्कृत में प्रकारान्त शब्द के भी ‘बालके िले रूप मिले हैं, जो कि खेल की तीसरी अज- स्था में आते-आते छुस । ---- ॐ जैसे ही रह 'ए। यानी भि: के ‘भु को उड़ाकर प्रकृति के अन्य क्र तथा यय के में सन्।ि हो गई। परन्तु आकृत की धारा में राहिं' जैसे रूट मिलते हैं, काम :- सर्वनाम के । इस का उजब वह हुआ कि प्रा में बाल कभः क ध्ववि हैं। विस का लोप या वरों में रूपान्तर प्राकृतों ने कर लिया ! चिंर्ग प्रा में सुथा उड़ हो गए हैं । तर भि' ३ अपने रूप में ना : ६ उट्टा किं । विस के इदले अनुस्वार धार किंवा श्रर थेवैदिक काल झा “म:' यहाँ ‘मेहि' बन गए ! मे’ि म अनुस्वार ’ि का उद्धार अनुनासिक भी हो सकता है; जैसा कि हिन्दी में है। बहुत्वद्योतन से मतलब; ल’ हो, अनुस्वार हो, अनुनासिक ई ! ‘इन्हे-उन्हें श्रादि में 'इ' : 'हं' अनुना- धिक है, सानुस्वार नहीं । यानी बिन्दु-चिह्न यहाँ चन्द्र-बिन्दु ही जह है । प्राकृत की तीसरी अवस्था आई, ले लो ‘अपभ्रंश-काले ऋइते हैं, उस हिं' का विविध कारकों में प्रयोग होने लगा और वह फिर अद” ब्रजभाषा आदि आधुनिक जनभाषा में छाझर और भी अधिक व्यवस्थित हो गई । राष्ट्रभाषा हिन्दी ने उधकः सूक्ष्म रूप ह’ लिया, बहुवचन में अनुनासिक ई ब्रोर खो भी सुझाओं में या विशेष में नहीं, सर्वनाम में ही } कदाचित् नी पश्रा का चि समझ कर ही इसे इ रूप में अप- नाया हो; अन्यथा क का व्यवहार सर्वत्र है । इ ‘क’ « प्राकृत-पर! से ही हैं। माता' झी ने विभक्ति ऐसी है, जिसका संस्कृत तथा प्राकृत, दो धाराओं से मेल दिखाई देता है । '३’ विभक्ति संस्कृत से श्राई है। हिन्दी में मूज़ भा' के { तथा वैदिक संस्कृत के ) और भी लिदै ही अवशेष विद्यमान हैं ! कासों कह निई मूरखताई’ और ‘देखी सखी वह सुन्दरताई' आदि में भाववाचक 'ताई' तद्धित-प्रत्यय का ही उदाहरण के