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‘राम घर मिलेगा

इस वाक्य में ‘घर’ अधिकरण है; किन्तु न में विभक्ति है, न ‘पर है ! विभक्ति के बिना ही अधिकरण की प्रतीति होती है। में' वा 'पर' के अभाव में भी “घर” यहाँ किसी भी दूसरे कारक में नहीं समझा जा सकता ।

‘राम ने लड़का देखा

यहाँ लड़का' कर्म निर्विभक्तिक है। क्योंकि कर्ता-कारक की 'ने' विभक्ति ‘राम में लगी है । जब ‘राम’ कतु है, तो लड़का कर्म है ही ! परन्तु राम लड़का देखता है यह गलत वाक्य होश ! यहाँ क्रम में ‘झो लगाना जरूरी है - ‘राम लड़के को देखता हैं । संस्कृत में अच्छामि' कहने पर

  • अहम्' लगाना अनावश्यक समझा जाता है; जैसे हिन्दी में---‘जाता हूँ

कहने पर मैं । क्रिया के रूप से ही कर्ता की प्रतीति हो जाती है; क्यॊ कि इन क्रियाओं के कर्ता ‘अहम्'--'मैं' के अतिरिक्त और कोई हो ही नहीं सकते । जैसे अहम्' शब्द का प्रयोग अनावश्यक है, क्रिया की वैसी बनावट के कारण, उसी तरह ‘राम घर जाता है' आदि में को अदि विक्तियों की प्रयोग भी हिन्दी ने अनावश्यक समझा हैं । जब कि निविभकिक शब्द ही कर्तृत्व आदि असन्दिग्ध रूपसे प्रकट करते हैं, तब विभक्ति क्य दी जाए १ विभक्ति के सहित होने पर ही कोई शब्द “पद” हो सकता है, ऐसा ‘पद' झा लक्षण संस्कृत में है । इस लिए सम्बोवन के “राम' आदि में, स्त्रीलिंग ( प्रथमा-एक वचन ) 'लता' नदी आदि में तथा “प्रातः ‘सायम्' श्रादि अव्ययों में ( पदत्व की सिद्धि के लिए) विभक्ति का ‘लोप माना गया है। जो होता हुआ भी न दिखाई दे, दौं लुप्त है । हिन्दी में ऐसी विभक्ति- लोप की कल्पना करने की जरूरत ही नहीं; क्योंकि यहाँ निर्विभक्ति शब्द भई

  • पद’ हैं। वाक्य की इकाइयाँ ही यहाँ धूद हैं-'म जाता हैं' में 'राम'

संज्ञापद तथा जाता है' क्रिया-पद है। वाक्य से पृथक् संज्ञपद शब्द” या

  • प्रातिपदिक' हैं । हम कहेंगे----संस्कृत के 'राजन् अादि प्रातिपदिक हिन्दी ने

नहीं लिए; वरन ‘रा' जैसे उस के पदों को अपना “प्राविपदिक’ बनाया है। संस्कृत में राजन् प्रातिपदिक है--‘जा, जानौं, राजानः अदि प्रत्येक पद में उसका अस्तित्व है; इसी लिए (प्रति-पद रहने के कारण) राजन् ‘अति- पदिक' है । हिन्दी में राजन्’ प्रातिपदिक नहीं है । ‘राजन् अाया’ ‘डन् क गद्दी से हटा दिया' नहीं बोला जाता । राजा आया’ राजा को गद्दी से इटा