पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१६२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(११७)

( ११७ ) स्वर-सन्धि के बारे में भी चलन का ध्यान रखा जाता है। अत्यावश्यक चलता है, पर “अयुक्ति' हिन्दी में न चलेगा-समास करना जरूरी ही हो, तो “अरि-उक्ति' रहेगा। संसद् तथा सदस्य' शब्द हिन्दी के सामान्य जन भी समझ लेते हैं, परन्तु समास में सन्धि होने पर संससदस्य' में चकरा जाते हैं । संसद्-सदस्य’ अधिक सुबोध है । प्रत्येक' जैसे शब्द संस्कृत से बने- बनाए लिए गए हैं और वे अपने उसी रूप में चलते हैं। प्रत्येक को कोई

  • प्रति एक नहीं कर सकता । परन्तु अति-प्रति’ जैसे उपसर्गों का यहाँ स्वतंत्र

प्रयोग भी होता हैं और वहाँ सन्धि नहीं होती–प्रति अश्व दस रुपए और देने पड़ेंगे।' यहाँ ‘प्रत्यश्व' न होगः । इसी तरह ‘अति आचार भी ठीक नहीं। यहां ‘अति + आधार = ‘अत्याचार' न होगा; क्योंकि ‘अति’ को स्वतंत्र प्रयोग है । परन्तु अत्याचार से अपना ही पतन होता है यहाँ

  • अति-आचार न होगा | हिन्दी की मधुर ‘ब्रजभाषा' श्रादि बोलियों में भी

यही व्यवस्था है और इसी लिए अत्याचार' जैसे शब्द वहाँ सट्टप चलते हैं। सुन्धि-विच्छेद से इनका प्रयोग नहीं किया जाता । मेरी ‘तरंगिणी' का एक दोहा है:- ‘अति की भुली न बात कोउ, कैसी हू संसार । होत तुरत चार हूँ, अदि सो ‘अत्याचार' ।' | जिन उपसर्गों का स्वतंत्र प्रयोग नहीं होता, उन में तो संस्कृत की सन्धि बराबर रहेगी ही, परन्तु ‘अति’ ‘प्रति’ का भी स्वतंत्र प्रयोग न होने पर सन्धि-बन्धन अनिवार्य है । ‘उच्चारण’ को ‘उद्-चारण' कोई न बोल सकता है, न लिख सकता है। अध्यादेश' श्रादि सहस्रशः संस्कृत तदूत शुब्द चलते हैं, जिनमें “नित्य सन्धि' है ।। | संस्कृत में जहाँ द्विविध सन्धि है, वहाँ सरल-मधुर शब्द ही हिन्दी ने ग्रहण किया है । 'बिम्वौष्ठ-बिम्वोष्ठ' तथा 'अधरोछ'-अधरौष्ठ' में से ‘निम्बोध' तथा अधरोष्ठ” हिन्दी ने लिए हैं । ‘बिम्नौष्ट' से 'बिम्बोष्ठ' मधुर है । ‘गयो’-गयौं' ब्रज के द्विरूप शब्दों में भी यही स्थिति है । साहित्य ने परम्परा-प्राप्त और भाषाविज्ञान से अनुमोदित ‘गयो' जैसे प्रयोग लिए हैं। ‘गयो-यो' आदि को गयौ'-‘यौ' करने से कर्कशता आ जाती है। हाँ, करौ' करै’ आदि ठीक । करौ' में ब्रजभाषा की पुंबिभक्ति नहीं है।