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१ ११५ ) "पाणिनि-व्याकरण या संस्कृत की प्रचलित पद्धति छोड़ कर इधर-उधर हो गए हैं । “व्यम्बक को त्रियम्बक' कर दिया है ! उनके ऐसे प्रयोगों को गलत कौन कहे ? उनके प्रति आदर प्रकट करने के लिए निरंकुशाः कवयः' कह दिया जाता है। निरंकुश' का मतलब वही है-“मनमानी करनेवाला । अपनी शक्ति है, उधर चले गए ! परन्तु हम लोग उनके उन प्रयोगो को अनुसरण नहीं करते हैं । सो, ‘बलिबोऽत्र' जैसे चित् आर्ष प्रयोग मिल जाते हैं ! वह हिन्दी की प्रवृत्ति नहीं है । | एक बात और संस्कृत के महान् व्याकरणकारों ने भी सन्धि-प्रकरण में स्पष्टता का ध्यान रखा है। इसी लिए दूर से बुलाने में अब स्वर प्लुत हो जाता है, तो दूसरे किसी स्वर के साथ उस की सन्धि का निषेध कर दिया है, इस लिए कि स्पष्ट प्लुत मालूम पड़े। सन्धि हो जाने से क्या जान पड़ता कि स्वर प्लुत है, या ह्रस्व-दीर्घ ! “कवी अच्छतः आदि में भी सन्धिनिषेध साभिप्राय है। फिर, हिन्दी ने तो स्पष्ट से स्पष्टतर-पष्टतम मार्ग ग्रहण किया है ।। सो, स्पष्टता का ध्यान रख कर सन्धि-विषयक विधि या निषेध सर्वत्र सम- झिए । 'विषम तथा ‘विस्मरण' जैसे तटून संस्कृत शब्द हिन्दी में अवाई गति से चलते हैं । अठवीं श्रेणी का छात्र भी ‘विभ’ को देख छर विष्मर झरने

  • भूल कृमी भी न करेगा ! अर्थ भी बच्चे समझ लेते हैं । हिन्दी+व्याकरण में

इस विषय के नियम देने का बखेड़ा न किया जाएगा ! हिन्दीवाले क्या जानें किं संस्कृत के किस धातु में मूलदः ‘स हैं और किस मैं ' हैं । उन्हें क्यों इस चक्कर में डाला जाए कि लिद्ध' ही निषिद्ध हो गया है ! “सम-विषम प्रयोगों से समझ जाते हैं कि विषम' में 'स' को छ' हे वाया है। जो संस्कृतज्ञ हैं, उनके लिए हिँन्दी में इन नियनों का विस्तार अनावश्झ हैं और जो असंस्कृतज्ञ हैं, उनके लिए व्यर्थ का सिर-दर्द ! | इसी तरह विदेशी भाषा के अंचलित शब्द बदे-छनाए हिन्दी में ले लिए । अब हिन्दी के प्रकरण में उनकी सन्धि श्रादि के निलंब करना एक गोरखधन्धा भर है । खेड़ा बढ़ाया जा | व्यंजन-इन्धि में संस्कृत शुद् भू' के अनुस्वार करके चलते हैं, यदि रे

  • अन्तस्थ' अथवा स्त्रर हो - धंरक्षण संहिता' । ईन्दी में मी अद्द है ।

परन्तु संस्कृत में एक में पर- जरूरी है, जैसे-अङि' अङ्क