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लता + एँ = लताएँ माता + हूँ भाताएँ गौ - एँ = गौएँ धेनु हँ = धेनुएँ यदि ‘ऊ' अन्त में हो, तो उ’ हो कर व्’ का लोप हो जाता है :- बहू + एँ = बहुएँ इस तरह की बहुत सी बातें बर्ण-सन्धि की हैं। कुछ आगे अथास्थान निर्दिष्ट होंगी। यहाँ प्रारम्भ में इतनी चर्चा इस लिए की गई कि अगे समझने में श्रासानी हो जाए।

संस्कृत को सन्छियाँ

अब हम संस्कृत भाषा की उन सन्धियों की चर्चा संक्षेप में करेंगे, जो हिन्दी में भी ( तद्र र संस्कृत शब्दों में ) चलती हैं। उनका भी जिक्र किया जाएगा, जिन्हें हिन्दी ने स्वीकार नहीं किया है। संस्कृत की कुछ सन्धियाँ यहाँ चलती हैं, कुछ नहीं चलतीं । हिन्दी की अपनी सन्धियाँ बहुत कम हैं। और सो भी एकपदीय । अनेक पदों में सन्धि समास में ही होती है, जिसे हिन्दी ने प्रायः दूर ही रखा है ! हिन्दी का गठन स्पष्ट प्रतिपत्ति के सिद्धान्त को सामने रख कर हुआ है । समास में अर्थ-भ्रम को बहुत गुंजाइश हैं, इससे हिन्दी सावधान है। दूसरे, समास में पदों के विधेयता-शक्ति कुछ कुंठित सी हो जाती है--समास में बँध कर विधेय पद जोर खो बैठते हैं ! इस लिए राष्ट्रभाषा का गठन ऐसा है कि समास को बहुत कम स्थान मिला है। और, ससास होने पर भी संस्कृत की सन्धियाँ नहीं होतीं । “घर-आँगन' को भले ही वर माँगन' कर दीजिए, पर 'घाँगन' कभी भी न होगा। हिन्दी में ‘मनोकामना” जैस्य कोई पद अवश्य ‘अपनी सन्धि से मिल जाता है । यहाँ ‘मन’ से कामना की गॅदवन्धन हैं, ‘मनः' से नहीं ! विसर्ग हा कर ही मन, तेज, श्रायु श्रादि संस्कृत शब्द हिन्दी ने लिए हैं । “मन” शब्द के ‘अ’ को ‘श्रो' हो जाता है, कासना परे हो, तो---‘मनोकामना ! यह अकेला इशब्द हैं । हिन्दी की यह झपनी सन्धि है । कहीं यह सन्धि नहीं भी होती है----पूजै भनकामना तुम्हारी । मनःकामना हिन्दी में नहीं चल सकता, क्योंकि “मनोकामना ने घर कर लिया है। ‘मनःकाल संस्कृत में