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हरऽर्थ ‘च्’ का तालु स्थान है, परन्तु अ-सहित ‘च' का ‘तालु-कंठ स्थान हो जाएगा | ‘चु’ को ‘तालु-ऋोष्ठ' स्थान है। ‘प' का कंठोष्ठ और पि' का

  • श्रोष्ठ-तालु। ‘कि' का कंठ-तालु और ‘कु’ का कंठ-ओष्ठ स्थान । इसी तरह

आगे सब समझ लीजिए। व्यंजन के उच्चारणार्थ स्वर अपेक्षित है । सो, स्वर-रहित व्यंजनों के ही वे कंठ' अादि स्थान समझने चाहिए । हाँ, यदि व्यंजन से पूर्व स्वर हो, तब उसका स्वतंत्र उच्चारण होता है । 'वाकृ’ ‘विद्वान्' आदि में ‘क’ ‘न् श्रादि का उच्चार अलग जान पड़ता है । यहाँ भी ख्वर का सहारा तो पूर्व में है, परन्तु उसके पीछे व्यंजन पृथक् श्रुक है । पहले व्यञ्जन आए, तब यह स्थिति न होगी । बोलते ही न बनेगः ।

वर्ण-सन्धियाँ

जब दो या अधिक व पास-पास ( अनन्तर्य से ) आते हैं, तो कभी- कभी उनमें रूपान्तर हो जाता है। इसी रूपान्तर को ‘सन्धि' कहते हैं । सन्धि सजातीय वर्गों में भी होती है, और विजातीयों में भी । अर्थात् स्वरों की अपस में सन्धि होती है, व्यंजनो की व्यंजनो से होती है और कहीं स्वर तथा व्यंजन की भी । सन्धि में कभी दोनो वर्ण अपना रूप बदल कर एक तीसरे ही रूप में प्रकट होते हैं और कभी उन में से एक ही अपना रूप परिवर्तित करता है, दूसरा वैसा ही बना रहता है। कभी-कभी ऐसी सन्धि होती है कि दो में से एक का रूपापहार ही हो जाता है-उस का प्रत्यक्ष अस्तित्व रहता ही नहीं है। इसे 'वर्गलोय' कहते हैं। किसी ने अलाउद्दीन बादशाह के बारे में कहा हैं ।

सन्धौ सर्वस्वहरणं, विग्रहे प्राणएनिग्रहः ।

अलावद्दीननृपतौं, न सन्धिर्नच विग्रहः ।

अलाउद्दीन बादशाह से सन्धि की जाए, तो वह ऐसी होगी कि प्रायः

सब कुछ चला जाएगा और लड़ाई की जाए, तो जान पर आफत | न सन्धि करने को मन करता है, न लड़ाई करने की हिम्मत पड़ती है ! भाषा के वर्षों में भी कहीं-कहीं ऐसी ही सन्धि होती है-एक का सर्वा- पहार ! ‘खरीद के आगे ‘दार' प्रत्यय करने पर एक दकार लुप्त हो जाता है-खरीदार' ।