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पाणिनि ने सूत्रों में विशेष कार्य के लिए ऐसी पाँच लड़ियाँ बनाई हैं वस्तुतः प्रयत्न के आधार पर तन ही श्रेणियाँ की जा सकती हैं।

       १~-अल्याए ।

क, च, ट, तः १ , ज, ड, द, म,

       २ - महाप्राण-
           इत्र, छ, ठ; ५, फ.
           घ, , ढ, घ, भ.
      ३ --अनुनासिक अल्पप्राशे-
          छ, , , , ,

थों वर्गीय व्यंजनों को मुख्यतः त्रिधा विभक्त किया जा सकता है। इन तीनो व्यंजन-विभागों का संक्षिप्त परिचय अपेक्षित हैं ।। १–अल्पप्राण व्यंजन अन्तल्य’ तथा वर्गों के प्रथम इ, उ, ऋ, त, प ) और तृतीय ( र, ज, ड, द, ब ) *अल्पप्राण' हैं। इनका उच्चारणईमल है, ‘भहाशा' संज को अपेक्षा । *क-ख' -' देखिए, किंना छान्तर है ? कोमल वर्णन में अल्पप्राण-प्रचुर पद अधिक अच्छे लगते हैं और धीर-रौद्र आदि र या वैस उद्भट सिंह आदि के वर्णन में ‘महाप्राण' वर फबते हैं । य, र, ल, ३, को ‘अन्तस्थ' इस लिए कहते हैं कि इन का उच्चार व्यंजन तथा स्वरों का मध्यवर्ती-सा लगता हैं । अन्तः-स्थित’ से ये जाने पड़ते हैं, स्वरव्यंजनों के । इसी लिए इनकी जगह सम्प्रसारण से इ, उ, , लु' हुआ करते हैं। इसीलिए सोसाइटी-'सोसायटी' जैसे द्विरूप शब्द सामने हैं। कोइ’-कोय' और 'धो-धोय' जैसे रूप भी हैं । “युज् ॐ ॥ को संस्कृत में 'इ' हो जाता है । अनन्त उदाहरण हैं। ऊपर कहा जा चुका है कि मूल भाषा में एक ऐसा मूल सर था, जो बाद में लुप्त हो गया, जिसकी याद बार यो समाधि ‘ल के रूप में विद्यमान हैं। शेष तीन स्वर तो बराबर में, व, र का स्थान ग्रहण करते रहते हैं और उन स्वरों का यू १ र होना तो प्रसिद्ध ही है। कभी-कभी तथा 'अ' को भी ‘य-व' ( हिन्दु में ) होते देखा जाता है । विधि-प्रत्यय ‘इ’ का व्याकरण-दृष्ट रूप ‘ए’ है-*राम झा राम पढे, राम सोइ । परन्तु साधारशी जन-भाषा में यह { 'इ' , ' के रू