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एक मात्र ‘श्न' की और एक “इ” की, 'ए में दो मात्राएँ हुई। इसी तरह अगले तीनो स्वरों में दो-दो मात्राएँ हैं और इसीलिए ये ( संयुक्त ) स्यूर दीर्घ हैं, स्वभावतः । 'ए' का स्थान “काठ-तालु' है । 'अ' का कशठ और 'इ' की तालु; ” का “कण्ठ-तालु' । स्थान-भेद से स्वरों का स्वरूप-भेद और पृथक सत्ता ।। 'ए' क; और अ' का उच्चारण हिन्दी में संस्कृत के ही समान है- एकः-एक’ र ‘ओष्ठ' अोठ' । हिन्दी की पूरबी बोलियों में इन दोनों स्वरों को लघु उच्चारण भी होता है-इतना'-‘श्रोतना' । यहाँ ‘ए’ का उच्चारण ‘एफ' के 3' जैसा नहीं, बहुत हल्का हैं। इसी तरह ‘ओतना' में श्रो समझिए। इस लघु-उच्चारण के लिए लिपि में कोई पृथक् संकेत नहीं हैं। तुलसी के 'रामचरित मानस में *g तथा श्रो' के लघु उच्चारण पद-पद पर मिलते हैं । वैसे ही, अभ्यासवश लोग पढ़ते चले जाते हैं । जिन्हें वह उच्चा- रण नहीं मालूम, उन्हें छन्द की गति शिथिल जान पड़ती है। संस्कृत के ‘एतावान' से तना' निकला है। इसके वजन पर ‘केतना जेतना' शब्द गढ़ गए हैं ! वहाँ ‘तावाद' से “तेतना' भी बना है और 'बावान् से जेतना'। ‘ए’ सर्वत्र ‘एतावान् के लघु रूप ‘एतन के वजन पर } “तेतना' की ही जगह

  • शेतना' बोलते हैं, जिसमें वह' की झलक हैं। उर्दू के एकखा' आदि

शब्दों में भी ‘ए’ का वैसा ही लघु उच्चारण है और इसीलिए वह होते-होते ‘यकस भी हो गया है। मिट्टी कूट कर अाँगन एकसाँ कर दो। 'एकसा लमझिए । परन्तु एकसाँ’ अव्यय की तरह सर्वत्र समरूप रहता है। एक सा' एक-सी' की तरह बदलता नहीं है । | इन स्वरों को लघु उच्चार प्रकट झरने के लिए अब एक चिह्न बना लिया गया है-कतना’ ‘जतना' आदि में “केतकी का जैसा और ‘जेठ' का जैसा ‘ए’ उच्चरित नहीं, हलका है। इसी तरह ‘अतना' में ‘ोठ' की तरह ' का उच्चारण नहीं, हलका है। परन्तु एतना पानी बहुतु है' को कैसे समझाया जाए ? स्वरों की बारहखड़ी चले, तब तो अतना पानी हो सकता है और सम्भव है, ‘श्रो'... "औ’ के पृथक् लिपि-संकेत कभी { इ, उ, ए की तरह ) रहे हों; पर अब तो ‘अ’ में (,) मात्राएँ लगा कर ही वे स्वर प्रकट किए जाते हैं। वह 'ए' तथा 'ओ' का लघु उच्चारण पश्चिम में बढ़ते-बढ़ते और भी लघु हो जाती हैं---एकदम ‘इ’ र ‘3' के रूप में वे स्वर आ जाते हैं। ‘ओत-