पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/११५

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( ७० ) डा० अमरनाथ झा, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, ‘सभा के प्रधान मन्त्री डा० राजबली पाण्डेय, डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य पं० चन्द्र बली पाण्डे, साहिल्य-उपसमिति के संयोजक डा० कृष्यालइल जी तथा विद्वद्वर पं० करुणापति त्रिपाठी आदि विद्वानों को धन्यवाद् दीजिए, जिनकी तत्परता से यह काम पूरा होने जा रहा है।

प्रकृत ग्रन्थ के सम्बन्ध में

मैंने सन् १९४८ में जो व्याकरण की रूप-रेखा तयार की थी और सन् १६४९ में जिसका प्रकाशन हुआ था, उसका नाम ‘राष्ट्रभाषा का प्रथम व्या- करण' रखा जरूर गया है; परन्तु वस्तुतः राष्ट्रभाषा का प्रथम व्याकरण यही है, जो अब लिखा जा रहा है, जिसकी यह पूर्व-पीठिका अाप पढ़ रहे हैं। वह तो रूप-रेख भर दी गई थी, विद्वानों के परीक्षणार्थ । पाँच वर्ष तक परीक्षा हुई और सन् १९५४ के सितम्बर में उस की प्रामाणिकता पर हिन्दी ने मुहर लगा दी। यों तो विचार-विमर्श सुदा चलता ही रहेगा, चलतइ रहना चाहिए; परन्तु चिरप्ररूढ़ विचारधारा को हटाना और उस पर फिर अपनी नई फुलम देना बहुत सरल काम नहीं है। पहले तो डर लगता था, उस धारा के विरुद्ध कुछ कहने में ! ‘लोग मुझे मूर्ख न समझने लगें कि ये जरा- जरा सी बातें यह नहीं समझ पाता !' परन्तु विचारों ने जोर मारा और सौ खतरे उठा कर भी उन का प्रकटीकरण ही इष्ट रही । १६.४३ में जोरदार शब्दो में उन विचारों को स्थायित्व दिया गया और १६४९ में नए विचारो की रूप- रेखा । अब यह हिन्दी का प्रथम व्याकरण बन रहा है । इसमें कुछ और नए विचार हैं, पहले के विचार पल्लवित भी किए गए हैं। इस ग्रन्थ की भी परीक्षा अपेक्षित है। इसके बाद, इसका दूसरा संस्करण ऐसा होगा, जिसे ( सब के साथ ) मैं भी हिन्दी का ‘पूर्ण’ और ‘प्रामाणिक व्याकरण कह सकेंगर ।। | इस ग्रन्थ की रचना प्रौढ़ जनों के लिए ही की जा रही है; इसलिए बहुत छोटी और प्रसिद्ध बातो की चर्चा न की जाएगी । उदाहरणार्थ व्यञ्जन में दूसरा व्यंञ्जन मिला कर कैसे लिखा जाता है, स्वरों की मात्राएँ किस-किस रूप में किस तरह लिखी जाती हैं, इत्यादि के उल्लेख से पृष्ठ न बढ़ाए जाएँगे। इन सब बातों को जाननेवाला ही इस पुस्तक को हाथ में लेगा। इस के आधार पर जो पाठ्य पुस्तकें आगे छात्रों के लिए बनेंगी, उन में ही वैसी चर्चा की जानी चाहिए; की ही जाएगी ।