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हाँ, अहिन्दी-प्रदेशों में इसका पूरा अध्ययन हुआ और मदरास तथा वर्धा में इसकी बड़ी प्रशंसा हुई। इसके अनन्तर, कई वर्ष बाद, सन् १९५२ में गुरु जी के ‘हिन्दी- व्याकरण का बड़ा संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ । इले संशोधन न कह फर “पुनर्निर्माण' कहना चाहिए । ग्रन्थ एकदम बदल गया है । इसके इस संस्करण की सामग्री पर हमें यहाँ कुछ नहीं कहनः है, केवल इतना समझिए कि सन्तोष न हुआ ! इस संशोधित ग्रन्थ में दो तरह के विचारों का सायं हो गया है, जिससे स्पष्टता जो आनी चाहिए थी, न आ पाई; प्रत्युत उलझनें बढ़ गई है। सन् १८५४ के अगस्त मास में ससूर से वैद्य स्वामी हरिशरणानन्द जी का एक पत्र अायो । सन् १९१६ के साथी निकले। लिखा था--'हमारी तो अायुर्वेदिक फार्मेसी खूब दे रही है। आजकल ससूरी का आनन्द ले रहा हूँ और आप अपनी साधना-तपस्या का फल मजे से भोगिए ! मैं ने तो तभी कहा था कि आयुर्वेद कर लीजिए; पर आप न माने । जन्म के जिद्दी ! खैर, अब अप नीचे लिखी पुस्तके वी० पी० से भेज दीजिए। पुस्तकें मैंने भेज दौं । इन से ले कर राहुल जी ने भी पुस्तकें पढ़ीं, यह मुझे ( स्वामी हरिशरशानन्द जी के ही ) एक पत्र से ज्ञात हुआ । राहुल जी में भी वहीं सारस्वत-धर्म है । पुस्तकें पढ़ कर रहा-रद्द न गया और तुरन्त एक लेख लिख कर कलकत्ते के नया समाज में प्रकाशनार्थ भेज दिया । इस पत्र के सितम्बर के अंक में ही वह लेख प्रकाशित हो गया । व्याकरण और निरुक्त पर ही पूरा जोर था । इसी सितम्बर में विद्वर डा० अमरनाथ झा ने “सभा को एक पत्र मेरे सम्बन्ध में लिखा । राहुल जी के उस लेख की कतरन भी भेजी और व्याकरण लिखवाने की प्रेरणा की । इधर काशी के विद्वान् और ‘सभा के अधिकारी पहले ही कुछ सोच रहे थे कि इससे कुछ काम ले लेना चाहिए। यह बात मुझे प्राचार्य डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने स्वयं बताई । इन सभी बातों ने मिल कर यह किया कि सितम्बर में ही सभा' की प्रबन्ध- समिति ने तथा साहित्योपसमिति ने सब नै कर दिया और व्याकरण लिखने का काम मुझे सौंप दिया गया । मैं ने काम दीपावली के प्रकाश में शुरू कर दिया और आज यह पूर्व पीठिका तयार । अब कल से व्याकरण लिखने का काम चल पड़ेगा।