पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/११२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(६७)

‘तो झणु गद्दणु अम्हारिसे हिं, वायुरण-विहूहिं रिसेहिं ।। इन पद्यांशों की छाया महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने यों दी है:---- व्याकरण किच्छु ना जानिया, ना वृत्ति-सूत्र वक्खानियऊ। तो कौन ग्रहण हमरे सदृशहिं, व्याकरण - विहून सतादृशहिं । ऐसा जान पड़ता है कि व्याकरण-सम्मत भाषा का साहित्य में बड़ा महत्व था और वह सूत्र-चि रूप से व्यवस्थित था । यहाँ कवि ने विनय- प्रदर्शन मात्र किया है, जैसे कि तुलसी ने ‘कवि न होउँ, नहिं चतुर कहा अादि रूप से | तुलसी पर स्वयंभू की 'रामायण' का गहरा प्रभाव हैं । महापण्डित राहुल सांकृत्यायन का तो कहना है कि रामायण की रचना में तुलसी ने जो ‘संभु का नाम लिया है, वह स्वयंभू' ही है ! हमें इस पर यहाँ कुछ नहीं कहना है। | इसके अनन्तर हमारा देश पराधीन हो गया और हिन्दी (विदेशी लिपि तथा विदेशी शब्दों में विदेशी भाव-भावनाएँ लेकर) उर्दू' नाम से चल पड़ी । उस समय उर्दू के तथा ब्रजभाषा के छोटे-मोटे व्याकरण बने ! व्याकरण क्या, भाषा सीखने-सिखाने की प्रारम्भिक चीजें समझिम् ।। अंग्रेजी राज आने पर हिन्दी के व्याकरण बनने लगे ! शासन की दृष्टि से तथा मजहब को प्रचार जनता में करने के लिए देश-भाषा सीखने की जरूरत विदेशियों को पड़ी। इसके लिए कई अंग्रेज विद्वानों ने तथा पादरी लोगों ने पृथक्-पृथक् हिन्दी के व्याकरण बनाए । कुछ अंग्रेजी में बने, कुछ हिन्दी में । एक पादरी साहब का बनाया भाषा-भास्कर' बहुत लोकप्रिय हुआ, खूब चला ! मेरी छात्रावस्था तक इस व्याकरण की ही धूम थी। सन् १९१६ में जब मैं कुछ सोचने-समझने योग्य हुआ, तो हिन्दी- व्याकरण में दो विद्वानों के नाम' सर्वोपरि थे १–१० अम्बिका प्रसाद वाजपेयी और २–पं० कामताप्रसाद गुरु । हिन्दी-कौमुदी' तथा 'हिन्दी-व्याकरण ( इन दोनों विद्वानों के व्याकरण-ग्रन्थ ) १९२०-२१ में प्रकाशित हुए।