पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१०४

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( ५६ ) का उच्चारण हझ “जलज' के 'ज' जैसा ही करते हैं। हम लोगों के गले ख: खड़ाहट के साथ नहीं बोलते । ईरान आदि में वैसा उच्चारण जरूर है, जहाँ इमारा खर्’ भी ‘स्वर' उच्च रित होता है। हिन्दी में फारसी श्रादि के जं? शब्द खप गए हैं, वे हिन्दी-उच्चार में ही चलाते हैं । कुछ लोग ज़रूरत “बाज़ार ‘फ़ायदा' जैसे प्रयोग हिंदी में पहले करते थे-मुंशियान्ह तर्ज पर; परन्तु अब वह बात नहीं रही । अब नोचे बिन्दी दिए बिना वे सब शब्द तद्भव' रू में चलते हैं । ह, उर्दू-फारस का कोई पद्य-अदि उद्धृत करनी हो, तब नीचे बिन्दी दे-३' कर द्र' शब्द अवश्य लिखने होंगे । इसी प्रकार अंग्रेजी-वाक्य नागरी लिपि में उद्धत करदे समय हास्पिटल' लिखा जाएगा- मेम साहब ने कहा-'आई एम गोइंग उ टू द हॉस्पिटल'। दूसरी भाषाओं में भी ऐसा ही होता है। हमारी गंगाजी' अंग्रेजी में में जिज हैं । परन्तु रोमन-लिपि में जब संस्कृत का प्राकृत लिखी जाए, तब गंगा' शब्द ही लिखी जागः, गैजिज' नहीं-Sa. Garga FT ari- are-- सः गंगठ हरिद्वारे' । यहाँ जिज' न रहेगा ! हिन्दी में इभ दीनानाथ' लिखते हैं । ‘दीन' और 'नाथ' दोनों ही तद्द संस्कृत शब्द हैं। परन्तु संस्कृत में इभ दीनानाथ' कभी भी न लिखेंगे, बड़ी गलती हो, ऐसा वहाँ लिखना । ठीक वैसी ही गलती, जैसी कि हिन्दी में बिस्तर' और 'राष्ट्रिय चलाना । सो, प्रत्येक भाषा की अपनी प्रकृति होती है, अपनी चाल होती हैं । उसके विरुद्ध कोई जो नहीं सकता । हिन्दी में ज़रूरतअादि तद्प फारसी शब्दों का प्रयोग अब कह होता है? कोई समय था, जब बड़े-बई महारथी वैसे प्रयोग करते थे । परन्तु हिन्दी की प्रकृति ने उसे स्वीकार न किया। इस प्रकृति को लोग पहले भी पहचानते थे । बाबू बालमुकुन्द दुत ने इस सम्बन्ध में जो कुछ लिखा था, उसका कुछ अंशु देखिएः- ‘हिन्दी में खाली ‘ज' होता है और उर्दू में ( फारसी के ) जमशाल' ‘जे और बड़ी ‘जे वाद' और 'जय' । उन’ के सिवा इन सङ उर्दू- अक्षरों का उच्चारण ‘जे के उच्चारण के तुल्य होता है । 'जे' का उच्चारण जिह्वा के ऊपर दाँतों के साई मिलने से होता है । हिन्दी में वैसा उच्चारण नहीं; क्योंकि वास्तव में ‘जे ( ज्ञ ) का उच्चार जीस' (जका ही विकार हैं। वह फारसी वालों के कंठ की खराबी के सिवा और कुछ नहीं है उस खराबी को हिन्दी में फँसाने से क्या लाभ ?