पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/९५

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उपरंजनीय ६०९ उपराजनी उपरंजनोय–वि० [सं० उपरञ्जनीय १. रंगने लायक। २ जिम- उपरमण-सज्ञा पु० [स०] १. विपय मोग से विरत हो जाना। २ | पर प्रभाव डाला जा सके। वैधिक क्रियाओं से विराग या उदासीनता । ३ विश्राति (को)। उपरंज्य-- वि० [सं० उपरब्य] १ रंगने लायक । २. जिसपर उपरवार'f-सज्ञा स्त्री० [हिं० ऊपर+बार (प्रत्य॰)] वांगर प्रभाव पड़े। जमीन । ऐसी भूमि जिसपर वर्षा का जल अधिक न ठहरे। उपरंध-संज्ञा पुं० [१० उपरन्ध्र] १ छोटा छेद । २ घोड़े की उपवार-.-वि० ऊपर स्थित (को०)। पसलियों के बीच का भाग जो गड्ढेनुमा दिखाई पड़ता है। उपरस--संज्ञा पुं० [१०] वैद्यक में पारे के समान गुण करनेवाले (झौ] । पदार्य । उपर--अव्य० [सं० उपरि] दे॰ 'ऊपर' । उ०—(क) पुत्र सनेह विशेप-गधक, ईंगुर, अभ्रक, मैनसिले, सुर्मा, तूतिया, लाजवर्द, मई र समई । माया जननि उपर फिरि गई ।---नद० पत्थर, चुवक, पत्थर, फिटकरी, शख, खडिया, मिट्टी, गेरू, 7०, पृ० २४३ । (ख) तव वह ब्राह्मन पर के घर | मुल्तानी मिट्टी, कोडी, कसीम और वालू इत्यादि उपस चोलिकै अाप नीचे रह्यौ ।दो सौ वावन०, ना० २, कहलाते हैं। पृ० ७०। उपरहित--संज्ञा पुं॰ [स०पुरोहित, ७) उपरोहित] दे० 'पुरोहित'। उपरक्त–वि० [सं०] १ जिसमें ग्रहण लगा हो। राहुग्रस्त । २ उपरहिती--सज्ञा स्त्री० [हिं० उपरहित] ६० ‘पुरोहित' ।। भोगविलास में फैमा इम्रा। विषयासक्त । ३ उपरजक या उपाँठा--सज्ञा पु० [हिं०] दे॰ 'पराँठा' । । उपाधि की सन्निकटता के कारण जिसमे उसका गुण या उपरात -- किं० वि० [हिं० ऊपर + १० अन्न ग्रनतर । पीछे । गया हो । विशेष—इस शब्द का प्रयोग काल के ही सवध में होता है। उपक्षण--सुज्ञा पुं० [म०] १. चौकी । पहरा । २ फौजी नैयारी ।। उप -संज्ञा पुं० [सं०] उपल। कडा । गोहरा 1 उ०--ौर नतिरु सैनिक तैयारी (ड)। | उपरा यापू गौ ।--दो सौ वविन०, 'भा० १, पृ० १६४ । उपरत-वि० [सं०] १ विरक्त । उदासीन । हुटा हुआ । २ मरर ग्रा । मृत् । । उपराग-संज्ञा पुं० [सं०] १ रग । २. किसी वस्तु पर उसके पास उपरति सुज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ विषय से विराग । विरति। त्याग । की वस्तु का आभास पहना । अपने टिकट की वस्तु के प्रभाव २. उदाधीनता ! उदासी । ३ मृत्यु । मौत । से किसी वस्तु का अपने असल रूप से भिन्न रूप में दिखाई उपरत्न-मैज्ञा पुं॰ [सं०] घटिया रत्न । कम दाम के रत्न या पत्थर । पडना । जैसे,--लाल कपडे के ऊपर रखा हुअा स्फटिक लाल विशेप-- वैद्यक ग्रयों के अनुसार वंक्रातृमणि, मोती का सीप, दिखाई पड़ता हैं । उपाधि । रक्षस, मरकत मणि, लहसुनिया, बाजा, गारुहि मणि (जहर- विशेप-साक्ष्य में बुद्धि के उपरार्ग या उपाधि से पुरुप (आरमा) मोहरा), शेख और स्फटिक मणि यै नर्व उपरत्न माने गए हैं। | कर्ता समझ पड़ता है, वास्तव में है नहीं। उपरना—संज्ञा पुं० [हिं० अपर+ना (प्रत्य॰)] ऊपर से ग्रोढ़ने ३ विषय में अनुरक्ति । वामना । ४ चद्र या सूर्य ग्रहण। का वस्त्र । दुपट्टा । चद्दर। ३०---पिअर इपर ना काखा उ०-भएउ परय विनु रवि उपरागा ।—मानस, ६ । १०१। सोती ।—मानस, १॥३२७ ।। उपराचढी--सज्ञा स्त्री० [हिं० ऊपर+चढ़ना] किसी काम को करने उपरना--क्रि० स० [सं० उत्पादन] उखड़ना । या किसी चीज को लेने के लिये कई अादमियो का यह कहना उपरनो f-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० उपरना] दे॰ 'उपरना' । उ०--झीने कि हुमी करें या इमी लें, दूसरा नही । एक ही वस्तु के लिये | पट की वोवती, उपर उपरनी झीन - माधवनल०, पृ० १६२ । कई प्रादभियो का उद्योग। अहमहमिका स्पर्धा। उ०-एक उपरफट–वि० [हिं० ऊपर-+ फट (प्रत्य॰)] ऊपरी । इधर उधर का। पारिपद् ने हँसकर कहा---'महाराज' | यदि वहृत आदमी जाने व्यर्य का । निष्प्रयोजन । उ०—मेरी वहि छौडिदै रावा करत को प्रस्तुत हैं तो बहुत अच्छी बात है । इस उप रचिट्ठी में उपरफट वार्तं । सूर स्याम नागर नागरि सौ करत प्रेम की अापकी सेना का व्यय कम होगा ।—गदाघरसिंह (शब्द॰) । दाते -सुर०, १० । १२६६ ।। उपराज'--संज्ञा पुं० [स०] राजप्रनिनिधि । वाइसराय । गवर्नर उपरफट्ट –वि० [हिं० ऊपर + फट्ट (प्रत्य॰)] १ ऊपरी । वालाई । जनरल । । नियमित के अतिरिक्त । बँधे हुए के सिवाय । जैसे–नौकरी के उपराज -सज्ञा स्त्री॰ [सं० उपार्जन] उपज 1 पैदावार ! सिवाय उन्हें ऊपरफट्ट, काम भी वहुत मिलते हैं। २ इधर उपराजना-- क्रि० स० [सं० उपार्जन] १ पैदा करना । उत्पन्न उधर का । वठिकाने का । व्यर्थ का । फजूल । निष्प्रयोजन । करना । जनमाना। उ०—प्रयम जोति विधि ताकर साजी, जैसे, वह उपरफट्ट, वातो मे बहुत रही करती हैं, अपना काम धौ तेहि प्रति सिटि उपराजी ।—जायसी ग्र०, पृ० ४ । २ नहीं देखता है। रचना ! वनाना । मानृप साज लाख मन साजा । होई उपम-संज्ञा पुं० [सं०] १. विरति । वैराग्य । उदासीनता । चित्त का सीइ जो विधि उपराजा । जायसी ग्र०, पृ० ११६ । ३ हटना। २. त्रिवृत्ति (को०) । ३ मृत्यु (को०)।४ मेधा (को०) । उपार्जन करना 1 कमाना। उ०—-घटै वढे मो शिला सदा ही, बुद्धि (को॰) । उपराजै घन दिन प्रति' ताही ।-रघुराज (शब्द०)।