पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/८६

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उप चैतनी ६०० उपजीवने कैसे जग को अपना सकती, कैसे उसके मन को ऊँचती ।- --कवीर (शब्द॰) । (ख) खेत में अपने मवे कोई वाय, घर प्रलय सृजन पृ० १२ ।। में उपजे घर वहि जाय ।-पहेली (शब्द॰) । विनसइ उपजई विशेप--व्यक्त चेतना को दो 'मगो में विभाजित किया जाता ज्ञान जिमि पाइ कुसग सुसग ।-मानस । ३ । दो० १५ ।। है।--केंद्रीय भाग और सीमात भाग अथवा चेतना की विशेप-गद्य में इस शब्द का प्रयोग बडे जीवों के लिये नहीं होता कोर। सौमात भाग या चेतना की कोर का ही नाम उपचेतन है । जड़ और वनस्पति के लिये होता है । पर पद्य में इसका या अवचेतन है । इसे भाग में विचार भाव और अनुभव रहते व्यवहार सबके लिये होता है । ज०----जिमि कुपूत के उपजे हैं। जिनके विपय में हमें अभी, इस स्थल पर तो कोई ज्ञान कुल सद्ध में नसहि }---मानस, ४ । दो० १५ । नही है, पर चैप्टा करते ही हमें उम्मका ज्ञान हो सकता है। उपजप्त-वि० [सं०] १ कानाफूसी से बढ़काया हुअा। २ कान में उपचेतना--सज्ञा स्त्री॰ [सं०] अत सया । अतश्चेतना । ऊपरी चेतना धीरे से बुद्ध भेद की बात कहकर विद्रोह के लिये उकसाया के भीतर स्थित चेतन शक्ति (को०)। गया को०)।। उपचेय--वि० [स०] इकट्ठा करने योग्य । सग्रह करने योग्य [को० । उपजाऊ-वि० [हिं० उपज +अऊ (प्रत्य॰)] जिसमें अच्छी उपच्छद- सज्ञा पुं० [सं० उपच्छन्द] १ फुतलाना । बहकाना। २। उपज हो । जिसमें पैदावार अच्छी हो । उबंर । जरखेज । मेल करन।। ३ यावरण । ढक्कन्। ४ प्रार्थना (को॰] । । यौ॰—उपजाऊ भूमि।। उपच्छदन--संज्ञा पुं० [सं० उपच्छन्दन] १ फुसलाने या बहल ने उपजाऊपन---सज्ञा पुं० [हिं० उपजाऊ+पन] उर्वरता। उपजाऊ की क्रिया या भाव । २ निमत्रित करना । ३ अपनी राय में | होने का भाव [ये । । मिलाना [को०] । उपजात–वि० [सं०] १ उत्पन्न किया हुमा । २ ऋद्ध किया हुप्रा । उपच्छदित----वि० [सं० उपच्छन्दित] १ लालच दिखाकर फुसलाया अाविष्ट किया हुआ (को०३।। | हुआ। २ अपने मत में मिलाया हुआ को०] । उपजाति-सज्ञा स्त्री॰ [स०] वै वृत्त जो इद्रयचा प्रौर उपेंद्राचा तूया उपच्छदसच्चा पुं० [स०] ढक्कन । वरण । चट्ट [को०] । इद्रव शो गौर वशस्थ के मेल से बनते हैं। इंद्रवजा और उपच्छन्न--वि० [स०] ढका हुआ । दिपाया हुअा [फौ०] । उपेंद्रवज्रा के मेल से १४ वृत्त बनते हैं -कत, वार, माली उपज- सद्या स्त्री० [सं० उत्त+पद् या उत्पाद्य प्र० उप्पज्ज] १ ।। शाला हुँसो, माया, जाया, बाला, प्रदि, भद्रा, प्रेमा, रामा, उत्पत्ति । उद + व । पैदावार । जैसे, इस खेन की उपज अच्छी है । ऋद्धि और सिद्धि । कही कही शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा विशेष- -इसक, प्रयोग बड़े जीवो के सवध में नहीं होता, विशेप- के योग से भी उपजाति वनती है । | कर वनस्पनि के संबंध में होता है। उपजाना—क्रि० स० [हिं० उपजना का सफर्मक रूप] उत्पन्न २ मन में आई हुई नई वात् । नई उक्ति । उद्भावना । मुझ । जैसे, करना । पैदा करना । यह सव कवियों की उपज है । ३ मन में गढ़ी हुई वात । विशेष-गद्य में इसका प्रयोग विशेषत जड अऔर वनस्पति के मनगढत। लिये होता है, वडे जीवों के लिये नही । पर पद्य में सबके लिये मुहा०—उपज को लेना= नई उक्ति निकालना । ४ गाने में राग होता है । उ०—(क) भलेज पोच सव विधि उपजाए । की सुदरता के लिये उसमे बँधी हुई तानो के सिवा कुछ ताने मानम १। दो० ६ । (ख) पिय पिय रटै पपिहरा रे हिय अपनी ओर से मिली देना । मितार वजानेवाले इसे मिजराव दुख उपजावे |--विद्यापति, पृ० ५४४ । उपजाप--मज्ञा पुं० [स०] १. रहस्य की बात जो धीरे धीरे कान मे कहते हैं। उ०—धरे अधर उपग उपजे लेत हैं गिरिधारि। - सूर (शब्द॰) । कही जाय । २ विरोध का वीज बोना । ३ भडकाना। ४ क्रि० प्र०—लेना। पृथक्त्व । अलगाव को ।। उपजगती--संज्ञा स्त्री० त्रिष्टप् छद का एक भेद या प्रकार, उपजापक–वि० [सं०] १ नायक या नेता के कान में भेद की बात | जिसके तीन चरणो मे ग्यारह की जगह वाह वर्ण होते हैं। डालकर उसे विद्रोह के लिये भडकानेवाला । २ देशद्रोही। विश्वासघात करनेवाला [को०)। उपजत - संज्ञा स्त्री० [हिं०] उपज । पैदावार [को॰] । उपजिह्वा---सज्ञा झी० [सं०] १ जिह्वा के मूल में स्थित छोटी जिह्वा। उपजन --सज्ञा पुं॰ [मं०] १ वृद्धि । स धन । २ अनुबध । सवव । ३. | लोला । नोकर । घटी । जीम का भीतरी या वधित किसी मब्द के निर्माणार्थ एक अक्षर अौर जोड देना। ४. भाग [को०] । सयुक्त वर्ण । ५. शरीर । देह (को०)। उपजिह्निका--सा स्त्री० [सं०] दे० 'उपजिह्वा' [को०],।। उपजनन--संज्ञा पुं० [मं०] १ उत्पन्न करना । पैदा करना । प्रजनन उपजीवक---वि० [सं०] १ किसी उद्यम से जीविका उपजित करने- [को०] । वाला । २. आश्रित । ३ अनुचर । सेवक (को०] ।। । उपजना–क्रि० अ० [सं० उत्पद्यते, विकरयुक्त ‘उत्पद्य’ से प्रा० उपजीवन-सज्ञा पुं० [स०] [वि० उपजीवी, उपजीवक] १। उपज्ज, उपज्ज, उपज +ना] उत्पन्न होना । उगना । उ०— जीविका । रोजी । दूसरे का सहारा । निर्वाह के लिये दूसरे जेहि जन उपजे सकल सरि, सो जल भेद न जान कवीरा । का अवलव । ! को०] ।