पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/८२

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सन्हाँला उपकार उन्हाँलTG)----सी पुं० [स० उष्णकाल, प्रा० उण्हाल] दे॰ 'उन्हाला वना देने का कार्य करती है । २ लघु अख्यायिका। छोटी को॰] । कहानी को ।। उन्हानि -सज्ञा स्त्री० [हिं० उनहारि] समता। वरावरी । उ०-- उपकनिष्ठिका---सज्ञा स्त्री० सि०] सवसे छोटी उगली के पास को इद, रवि, चंद्र न, फणीद्र न, मनीद्र न, नरेंद्र न, नगेंद्र गति उगली । अनामिका । ती की। देव, ब्रज दपति सुहाग भाग संपति की उपकन्या- सज्ञा स्त्री० [सं०] पुत्री की सखी। सुख की उन्हानि ये करे न एक रैनी को ।--देव (शब्द०)। उपकन्यापुर--सं० पुं० [स०] अत पुर के ममीप । जनानखाने के पास उन्हार --सज्ञा स्त्री० [हिं॰] दे० 'अनुहार'। उ०—इसलिये हुप्रा [को०] । | कि इस बालक की और तुम्हारी उन्हार बहुत मिलती है । उपकरण - संज्ञा पुं० [सं०] १ साधक वस्तु । मामग्री । सामान । २ शकु०, पृ० १.१ । जाग्रो के छत्र चँवर अादि राजचि7। ३ ।जसेवक । राजा उन्हारिपु-सज्ञा स्त्री० [स० अनुहार] १. समता । तुल्यता । आकृति के नौकर चाकर (को०)। ४ दूसरे का हित करना । सेवा गत एकतः । २ किमी वस्तु या व्यक्ति के समान बनी हुई करना । सहायता देना (को०) । ५ उपकार या भलाई करना वस्तु या व्यक्ति [को॰] । (को०)। ६ यत्र । और (को०) । ७ प्राजीविका । सावन उन्हा+ -सज्ञा स्त्री० [बुनेलपडी--f० उन्हाँला] फागुन, चैत और (को०)। ८ राजा के छत्र चामर ग्रादि (को०) ! ६ राजा के वैशाख में तैयार होनेवाली फमल, जिसे 'रवी' कहते हैं। सेवक या अनुचर (को०)। उन्हाला--संज्ञा पुं॰ [स० उष्णकाल, प्रा० उहाल] गर्मी का । उपकरना--क्रि० स० [सं०] उपकार करना। भलाई मारना । मौसम 1 ग्रीष्मकान। उ०—(क) युक्ते सठि गांठ जो करे, सॉकर परे सोइ उपकरे। उपग -सज्ञा पुं० [म० उपाङ्ग या उप+अग] १ एक प्रकार का बाजा । --जायसी (शब्द) । (ख) जहाँ परस्पर उप करत तहाँ परस्पर नसतरग। उ०--(क) चग उपग नाद सुन तुरा । मुहर वस नाम । वरनत सव ग्रयनि मते कवि कोविद मतिराम - बाजे 'भल तुरा ।—जायसी (शब्द०)। (ख) उधटत स्याम् नृत्यति नारि । घरे अधर उपग उपजै लेत हैं गिरिधार }---- भतिराम (शब्द॰) । सुर० १०1१०५६ । २ उद्धव के पिता। उपकर्ण-सुज्ञा पु० [सं०] मुनना (को॰) । उपत--वि० [सं० उत्पन्न, प्रा० उत्पन्न हि० उपन] उत्पन्न, पैदा। उपकर्ण’---क्रि० वि० कान के पास । कान में [को॰] । उ०—-तरवर झर, झह वन ढोखा । भई उपत फूल कर उपकर्तन -सज्ञा पुं० [स०] १ श्रवण करना । २ कान, देना [को॰] । साखा । जायसी (शब्द॰) । उपकणका-सज्ञा स्त्री॰ [स०] लोकवाद । जनश्रुति । अफवाह [को॰] । उपॅग - संज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'उपग"। उ०—हरि गोकुल की उपकर्ता--सज्ञा पुं० [सं० उपकतु] [स्त्री० उपकत्रों! उपकार करने प्रीति चलाई, सुनहु उपॅग सुत मोहि न विसरत ब्रजवासी वाला 1 भलाई करनेवाला। सुखदाई ।—सूर०, १०॥३४२२।। उपकर्म--सज्ञा पुं० [स० उपकर्मन] उपनयन संस्कार में वटु का सिर उप--उप० [सं०] यह उपसगं जिन शब्दो के पहले लगता है उनमें १ घने का शास्त्रविहित कृत्य [को०] । इन अर्थों की विशेपता करता है समीपता, जैसे—उपकूल, उपकर्या-सज्ञा स्त्री० [सं०] दे॰ 'पकाय' (को०]] उपनयन, उपगमन । सामर्थ्य (वास्तव में अधिक्य) जैसे- उपकर्षण--सज्ञा पुं० [सं०] समीप खीचना । पास लाना (को०] ।। उपकार, गौणता या न्यूनता, जैसे—उपमंत्री, उपसभापति । उपकल्प-सज्ञा पुं० [सं०] १ आभूषण २ धन संपत्ति । ३ सामग्री। उपपुराण, व्याप्ति, जैसे-उपकीर्ण ।। साज सामान [को०)। उपइया--सज्ञा पुं० [सं० उपाय- देश० उपैया या उपयो] ढंग । उपकुल्पन—सज्ञा पु० [सं०] १ बनाना। प्रस्तुत करना । २ तैयारी तरीका। उपाय। करना । प्रायोजन कौ] । उपकठ--सज्ञा पुं॰ [स० उपकण्ठ] १ समीपता । निकटता 13 गाँव का छोर। ३. घोहे की एक चाल, जिसे सरपट चाल कहते उपकल्पना--सज्ञा स्त्री० [सं०] निश्चय करना। मन मे स्थिर करन!! हैं । इस चाल में वेग की अधिकता और त्वरा दर्शनीय होती २. बनाना 1 अविष्कार करना । ३ तैयार करना [को॰] । है। किसी दूरस्थ स्थान पर शीघ्र पहचने के लिये सवार घोड़े उपकल्पित-वि० [सं०] १ प्रस्तुत । तैयार । २ परिकल्पित । अायो- को इस चाल से दौड़ाता है। ज़ित [को॰] । उपक -वि० १ पास का । समीप रहनेवाला। २. निट (को०]। उपकार--सज्ञा पुं० [सं०][वि० उपकारक, उपफारी, उपकार्य, उपकृत] उपकथन--संज्ञा पुं० [सं०] १ प्रत्युत्तर । किसी के कथन के उत्तर में १ भलाई 1 हितसाधन-1 नेकी ।। कही गई बात । २ अपने पूर्वकथन के समर्थन में कही गई क्रि० प्र०--करना, मानना = की हुई मलाई को याद रखना वात। ३ प्रलोचना [को०] । कृतज्ञ होना । उपकया-सुज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ प्रासगिक कथा । मुख्य कथा के प्रसंग यौ॰—कृतोपकार । परोपकार । में अा जानेवाली गौण कथा जो मुख्य कथा को और सजीव २ लाभ । फायदा । जैसे----इस पघि ने वहा उपकार किया