पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/७८

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उनमान डेनहरि अगाई, पचम दिशा है अलख की जानेगा कोई संधि |--कवीर हैं । माजा । उ०—-थोरो जीवन बहुत न भरो। कियो न (शब्द०)। (ध) कहिबे मे न कछु सक राखी । वुधि विवेक साधु समागम कबहू लियो न नाम तिहारो । प्रति उनमत्त उन मान अपने मुख अाई सो भावी ।—सूर (शब्द०)। मोह माया बसे नहि कफ बात विचारो । करत उपाय न पूछत २ झटकल । अदाज । उ०-प्रागम निगम नेति करि गायो । काहू गनत न खाए खासे । इद्री स्वाद विवस निसि वासर शिव उन मान न पायो, सूरदास वालक रस लीला भन अभिलाख अपु अपुनपो हारयो । जल उनमेद मीन ज्यो बपुरो पाव कुहारो बढायौं ।—सूर (शब्द॰) । मायो ।--सूर (शब्द॰) । उनमान - सज्ञा पुं० [सं० उद् + नान या उन्मान १ परिमाण है उनमोचन-- सज्ञा पुं० [सं० उन्मोचन] छोडना । बधन दूर कर नाप ! तौल । थाह । उ०—रूप स मुद छवि रस भरी प्रति ही । देना ।। सरस सुजान, तामें तें 'भरि लेत दंग अपने घट उन मान ।- उनयना --क्रि० अ० [हिं०] १ झुकना । लटकना । उ०-उने रसनिधि (शब्द०)। २ शक्ति। सामथ्यं । योग्यता । रही केरा के घोरी ।—जायसी ग्र०, पृ० १३ । २ छ। ३० जो जैसा उनमान का तैसा तासो वील, पता को जाना । घिर ग्राना । उ०— (क) उनई वदरिया परिगै साँझा, गाहक नही हीरा गाँठि न खोल !-—कबीर (शब्द०)। अनुग्रा भूले बनखंड माँझा !-—कबीर (शब्द॰) । (ख) उन उर्तमान(g)---वि० [हिं०] तुल्य । समाने । उ०—तुव नासा पुढे गाते घटा चहू दिसि आई, छूटहि बान मेघ झरि लाई ।-जायसी मुक्त फल अधर बिब उनमान, गुजा फल सके सिर धारते (शब्द०)। (ग) उनई अाइ घटा च फेरी, कत उवा प्रगटी मीन प्रमाने ।—सूर (शब्द०) ।। मदन हौ घेरी ।—जायसी (शब्द॰) । उनमानना)---क्रि० स० [हिं० जनमान] अनुमान करना । खयाल उनरना --क्रि० अ० [स० उन्नरण = ऊपर जाना या उन्नन्न । करना । सोचना } समझना ।। हिं०] १ उठना । उमडना । ३०-ग्रहिरिन हाथ दही सगुन उनमाना —क्रि० स० [सं० उन्मादन] १ उन्मत्त होना । २ मस्त लेइ ग्रावइ हो, उनरत जोबन देखि नृपति मन भावइ हो । | हो जाना 1 भाव मुग्ध होना । --तुलसी ग्र २, पृ० ४ । ३ कूदते हुए चलना । उछलते हुए उनमानि -वि० [हिं०] दे॰ 'उनमान'३ । जाना। उ०----मेरो कहो किन मानती, मानिनि अपुही ते उतमीलन--संज्ञा पुं० [स० उन्मीलन] दे॰ 'उन्मीलन' । उतको उनरोगी ।—देव (शब्द०)। उनना -वि० [स० अन्यमनस्क, हि० अनमना] [स्त्री० उनमुन'] । उन्वना -क्रि० अ० [सं० अवनमन प्रा० ओणम] १ झुकना । मौन । चुप चाप । उ०-हँसे न बोलै चुनमुनी चचल भेल्या लटकना । २ छाना । घिर जाना 1 उ०--उनवत अवि सैन मार, कह कबीर अतर विधा सतगुरु का हथियार -कवीर सुलतान, जाननु परलय प्राव सुलानी ।---जाय मी (शब्द॰) । (शब्द॰) । ३ टूटना ! ऊपर पहना । उ० –देखि सिगार अनूप विधि उनमनी-संज्ञा स्त्री॰ [स० उन्मनी] १ उन्मनी मुद्रा । उ०-नि- विरह चला सव भाग । काल कप्ट वह उनवा सव मोरे जिउ काश की लोक निश्रिय निर्णय ज्ञान विसेखा। सूक्ष्म वेद है। लाग |--जायसी (शब्द०)। वनमुनि मुद्रा उन मन वानी लेखा ।—कबीर (शब्द॰) । उनवैर -वि० [स० ऊन = क्रम + वर हि० (प्रत्य०)1 न्यून । कम । २ आत्मविस्मृति । मोहावस्या (को॰) । तुच्छ । उ०—जहें कटहर की उनवर पूछी, वर पीपर का उनमूलना —क्रि० स० [स० उन्मूलन उखाडना । उ०—(क) । वोलह छूछी ---जायसी (शब्द॰) । मद परे रिपुन तारा सम जन-भय-तुम उनमूले ।---मारतेंदु उनवान'-- सज्ञा पुं०[स० अनुमान, मि० उनमान] अनुमान । सोच । ग्रं॰, भा॰ १, पृ० २७२ । (ख) हरीचद छविरासि प्रिया- ध्यान । समझ ।। यि दसत ही जिय दुख उनमूलै ।--भारतेदु ग्र०, भा॰ २, उनवान- सज्ञा पुं० [अ०] शीर्पक । नाम (को०] । | पृ० ५०० । उनसठ -- वि० [सं० एकोनपष्ठि या ऊनषष्ठि, t० अउणसट्छि । ] उनमेखी पचास और नौ । --सज्ञा यु० [सं० उन्मेप] १ ख का खुलना । २ फूल उनसठ-सज्ञा पुं० पचास और नौ की संख्या या अक जो इस तरह का खुलना या खिलना । विकास । उ०—सखि, रघुवीर-मुख- छवि देखु । नयन सुखमा निरखि नागरि सुफल जीवन लेखु । लिखा जाता है-*५६' । मनहु विधि जुग जल न विरचे ससि सुपूरन भेखु । भृकुटि भाल उनसठिा-वि०, सज्ञा पुं० [सं० ऊनपछि प्रा० अउणस]ि दे॰ । 'उनसठ'। विशाल राजत रुचिर कुकुमि रेखु । भ्रमर है रवि किरन लाए। ए उनहत्तर–वि० [स० एकोनसप्तति, प्रा० अउणसत्तरि, मउणहत्तरि] करन जनु उनमेधु --तुलसी (शब्द०) । ३ प्रकाश । साठ और नौ । उनमेखना- क्रि० स० [हिं० 'उनमेख' से नाम०] १ अाँख का , उनहत्तर–सज्ञा पुं० साठ अौर नौ की सख्या या अक जो इस तरह चुनना । उन्मीलित होना । २ विकसित होना ( फूल | लिखा जाता । है--'६६' ।। | आदि का )। उनहत्तर--वि०, सज्ञा १० [हिं० उनहत्तर दे० 'उनहत्तर' । उनमेद -सज्ञा पुं० [सं० उद् = जल+मेद = चरवी] पहली बर्षा से उनहानि--सृज्ञा स्त्री॰ [स०अनुहण] ३० “उन्हानि'। उठा हुआ जहरीला फेन जिसके खाने से मछलियाँ मर जाती उनहार - वि० [सं० अनुसार या अनुहार सदा । समान। उ०-