पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/६३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उदवर्तन ५७७ उदयगिरि उदवर्तन --सल्ला पुं० [सं० उद्वर्तन २० 'उद्वर्तन' । उदमान---वि० [म० उन्मत्त] [स्त्री॰ उदमीनी] उन्मत्त । उ०-- उदवस –वि० [अ० उद्वास = निजंत्र, उजाह वा स० उदासन = साल्व परवान उदमान मारी गदा प्रद्युमन मुरहित भए सुधि स्यान से हटाना] १ उजाड । सूना । उ०-( क ) उदवस विसा सूर (शब्द) । अव नरेश विनु देश दुपी नर नारि। राजभगु कुसमाज वह उदमानना--क्रि० अ० [सं० उन्मादन] उन्मत्त होना उ०-~-मैं गतग्रह चालि विचारि। तुलसी (शब्द॰) । ( ख ) उदवस तुम्हरे मन की सव जानी । आपु सवै इतराति ही दूपन हैनु अवध ग्रनाथ सत्र ग्रंब देश दुख देखि [---नुलन ग्र०, पृ० स्याम को ग्रानी । मेरे हरि कहें दसहि बरस को तुमही जोवन ६१ । २ उद्वासित। स्यान से निकाला हुआ। । एक स्थान पर मद उदमानी । लज नहीं प्रावत इन लँग रन कैसे धौं कहि ने रहनेवाला । खानाबदोश । उ०-( क ) अव तौ वान धरी अावत वानी ।।-सूर (शब्न)। पहरेन की जन उदवम् की भीत्यौं । सूर स्याम दासी सूख उदय-सज्ञा पुं० [सं०] [वि॰ उदित] १ ऊर ग्राना । निकलना । सोवहु, मयौ उनै मन चीत्य । सूर०, १० | ४००१ । (ख ) प्रकट होना । जैसे--( क ) सूर्य के उदय से अधकार दूर हो चचल निशि उदबम र करत प्रात वसि राजु । अरविंदनि में जाता है । (ख) न जाने हमारे किन बुरे कर्मों का उदय हुप्रा । । इंदिरा सुदर नैन नि लाज । मतिराम (शब्द॰) । उवासना-क्रि० स० [सं० उसन] १. स्थान से हटाना । उ विशेप-ग्रहो और नक्षत्रों के सेवघ मे इस शब्द का प्रयोग देना । मगर देना । २ उजाइन । विशेप होता है । उदवे -संज्ञा पुं॰ [सु० उई ग] दे॰ 'उद्वेग ।' उ०-( क ) गुन क्रि० प्र०—करना (प्रक में के प्रयोग) = उगना । निकलना } प्रकट वर्नन, उदवेग पूनि कहि प्रलाप, माद ।---मतिम X ०, होना । उ०—जनु ससि उदय पुरुव दिसि लीन्हा । । पृ० ३५३ । ( ख ) मुनि उदबैगु न पावई कोई’ -- रवि उद। पछि दिसि कीन् । जानी ग्र०, पृ० ८५ । मानस, ३१२६ ।। करना--" ( सकर्मक ग्रयोग )= प्रकट करना । प्रकाशित उदभट -वि० [सं० उद्भव] दे० 'उद्मट' । उ०---उद भट भूप करना । उ०—-तिल के मात्र पर परम मनोहर गोरोवन को मकर--केतन को, प्राग्य होत नई !--पोद्दार अभि० प्र०, दीन । मानौं तीन लोक की सोभा अधिक उदय सो कीनो। पृ० २३८। । —सूर (शब्द०)। लेना = उगना। 1कलना । उ०-~- उदभव --संज्ञा पुं० [न० उद् भव] दे॰ 'उद्भव' । जनु सुसि उदय पृरुव दिमि लीन्हा । जायम प्र ०, उदभौत-सज्ञा स्त्री० [सं० अदभुत ]अद्भुन वस्तु या घटना । अचमा। पृ० ८५।- होना= उगना । उदभौति --संज्ञा स्त्री॰ [ स० अद्भुत ] दे॰ 'उद मौत' । उ० मुहा०—उदय से अस्त तक या लौ = पृथ्वी के एक छोर से दूसरे अखियनि ते मुरली अति प्यारी- वे वैरिनि यह तीति । सूर छोर तक | सारी पृथ्वी में । उ०—(क) हिरनकश्यप वढयो परस्पर कहति गोपिका, यह उपज उदभौति ।-- उदय अरु अस्त लौं हुठी प्रहलाद चित चरने लायौ। भीर के सूर०, १०।३०२७ ।। परे तै धार सवहिन तजी खेम ते प्रकट ह्व जन छुहायौ ।-- उदमद --संज्ञा पुं॰ [ १० उद्+मद ] १ दे० 'उदमाद' । उ० -- सूर (शब्द॰) । (ख) चारिहु खड भीख का वीजा। उदय (क) गुरु अकुस माने नहीं उदमद माता अध। दादू मन चेत अस्त तुम ऐसे न जा !--जायसी (शब्द०) । नही, काल न देखें फध ---दादू०, पृ० १६ । मुदाधिक्य । मर्दै यौ०--सूर्योदय । चद्रोदय । शुक्रोदय । कर्मोदय । की अधिकता । उ०—छिन एक मनुवो उदमदि मात्र स्वोदे २ बुद्धि । उन्नति । बढ़ती । जैसे---किसी का उदय देखकर लागौ खाए रे ।—दादू०--पृ० ६२२। जलना नहीं चाहिए । उदमदना--क्रि० अ० [ १० उद्+मद ] पागल होना । उन्मत क्रि० प्र०—देना [ सकर्मक प्रयोग ] उन्नति करना । बढ़ती होना । अापे को भूलना । उ०—(क) अपने अपने टोल कहत । करना। उ० --- प्रबोधौ उदै देइ श्रीविदुमाधव |--केशव व्रजवासी आई । आव भगति ले चले सुदपति असी प्राई । ।।, (शब्द॰) ।—होना । शरद काल ऋतु जानि दीपमालिका बनाई । गोपन के उदमार्दै यौ०-भाग्योदय । फिरत उदमदे कन्हाई । सूर ० ( शब्द )। ३ उद्गम । निकलने का स्थान । ४ उदयाचेन । ५ व्यक्त उदमाती--वि० सी० [हिं० उदमादी] मद से भरी हुई । मनवानी। होना ! प्रकट होना । प्रादुर्भात (को०) । ६ सृष्टि (को०)। १ उदमाद(५-सज्ञा पुं० [स० उद् + माद उन्मत्तता । पागलपन। परिणाम । परिणति (को०)। ८ कार्य को पूर्णत्व (को॰) । ७७--(क) गोपन के उदमाद फिरत उदमदे कन्हाई ।--भूर ६. लान (को०)। १० मृद ! व्याज (को॰) । (शब्द॰) । (२) देऊ उमिरि अराक दृहून उदमाद रारि हित । उदयढे---संज्ञा पु० [सं० उदय + हि० गढ़] उदयाचे न । उ०-- दोऊ जानत जीति हारि जानत न दुई चित -सूदन (शब्द॰) । सूर उदयगढ़ चढत मुलाना, गहने गहरे कमल कुभिलाना 1-- (त) सदर यह मन मीन है बंधे जिह्वा स्वाद । कटक कान न जायसी (शब्द॰) । मुझई करत फिरे उदमाद --मे दर ग्र०, भा॰ २, पृ॰ २७२ । उदयगिरि- सज्ञा पुं० [१०] उदयाचल । उ०२-३दि उदयगिरि उदमादी - वि० [सः उन्मादिन] उन्मत् । मतदाता ।वाला। मचे पर रघुवर वाले पतग !—मानस, ११२५४ ।