पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५७२

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क्रिस्तानी झील क्रिस्तानी--वि० [हिं० किस्तान + ई (प्रत्य॰)] १ ईसाइयो का । क्रीडाना–सद्या स्त्री० [सं० क्रीडानारो] बारवनिता । वैश्या किये। २ ईसाई मत के अनुसार । क्रीड़ा भाँड-सज्ञा पुं० [सं० क्रीडा+भाएइ ] क्रीड़ा की वस्तु । क्रीखी---सच्चा सौ० [सं० कृषि] ३० 'कृषि' । उ०----जैसे क्रीखी खिलौन। उ०—जो देबि यत यह बिस्व पसारो। सो सव , करे किसान । निस सिर तेहि ततु समाना ?-- से० दरिया, क्रीड़ा ५ डि तुम्हारो ।-नद ग्र ०, पृ० २८२ । १० ६० ।। क्रीडामृग-सच्चा पुं० [स०क्रीडाम] खेल के लिये पाला दुपा हरिनको०] । क्रीज--सा औ० [अ० क्रीज] १ इस्त्री करके कपड़े पर छो हुअा क्रीडारत-वि० [सं० क्रीडारत] खेल में लगा हुआ । खिलवाड़ में निशान ! लोहा करते समय पतलून मे पड़ी हुई धारी। उ० मग्ने । ३०--उमड सृष्ठि के अंतहीन अवर से घर से क्रीडरत कहीं से बाल बरावर भी झीज बिगड़ने नहीं पाई थी !-- वालक से - अपर०, पृ० ३३ । सन्यासी, पृ० ३५७ । २. क्रिकेट के खेल में वह निशान किया क्रीडारत्न-सज्ञा पुं॰ [स० क्रीजरत्न रति कार्य । मैथुन क्रिया [क]। हुमा स्थान जिसके अंदर वल्लेवाला खेलता है । यदि खिला क्रीडाथ-सज्ञा पुं० [सं० क्रीडारथ] फूलों का रथ । उसके बाहर हो योर गेंद स्टप पर लग जाय तो खिलाड़ी क्रीडावन - सच्ची पुं० [स० क्रीडावन] पई वाग। नजर वाग । आउट हो जाता है । ३ सिकुड़ा। क्रीडाशैल-सज्ञा पुं० [सं० क्रीडाशैल] वनावट पर्वत । नकली क्रीट-संज्ञा पुं० [सं० किरीट] किट नाम का शिरोभूषण । उ०- पर्वत । । क्रीट मुकुट शोभा वनी शुम अ म वनी वनमाल । सूरदास प्रभू, क्रीडित-सच्चा पुं० [सं० क्लीडित] १ खेल । क्रीड़ा । २ वह जो खेल गोकुल जनमे मोहन मदन गोपान --सूर (शब्द॰) । चुका हो । खेला हुअा किंवै०) । क्रीटधर-वि० [सं० किरीटघर] किरीट धारण करनेवाला (कृष्ण) क्रीत-वि० [सं०] क्रय किया हुवा । खरीदा या मोन लिये इमा । उ०—कान्हा करम कृपानिधि, केसद कृश्य फुपाल। कु जबिहारी शीत-सच्चा पुं० [सं०] १ मनु के अनुसार बारह प्रकार के पुत्रों में से क्रीटघर, कंसासुर को काल ।—दया०, पृ० १८ । एक जो मोल लिया गया हो। क्रोतक । ३ पन्ने प्रकार के क्रीड-सबा पुं० [सं०] १ खेल । क्रीड़ा । २ परिहास । मनोविनोद दासो में से एफ 'छो मोन f-या गया हो । | [को॰] । क्रीत - सज्ञा नौ० [सं० फीति] यश । कीतिं । सुनाम । उ०— क्रीडक सुच्चा पुं० [सं०] १ खेलनेवाला। खिलाड़ी । ३ द्वाररक्षक । महाराज मोता कहूं क्रीता सु नीता सूर --रघु ० रू०, | द्वारपाल [को०] । पृ० १४५ । कीडन-सी पुं० [सं०] १ खेल । क्रीडा । २ खिलौना । खेलने की क्रोतक' - सच्चा पुं० [सं०] मनु के अनुसार बारह प्रकार के पुत्रो में से बस्तु [ये०] । एक, जो माता पिता को धन देकर उनसे खरीदा गया हो । क्रीड़नक-सबा पुं० [सं०] खिलौना [को०] । विशेष- ऐसे पुत्र का केवल अपने मोल लेनेवाले की संपत्ति के क्रीडनीय, क्रीडनीयक–समा पुं० [सं०] दे० 'क्रीडक' ।। अतिरिक्त पैतृक सपत्तिा पर किसी प्रकार का अधिकार नहीं क्रीडा-सा स्त्री० [सं० क्री] १ कल्लोल । केलि । प्रमोद प्रमोद । होता । अाजकल इस प्रकार का पुत्र बनाने का अधिकार खेलकूद । २. ताल के सात मुख्य भेदों में से एक जिस ताल में केवल एक प्लुत हो, उसे क्रीड़ा ताल फह्ते हैं ।-(संगीत)। क्रीतक-वि० खरीद करने से प्राप्त । क्रय से प्राप्त [को०)। ३ एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में यगण पौर झीटा मा क्रीतदास-सज्ञा पुं० [सं० क्रीत+दास] खरीदा हुमा दास । गुलाम । एक गुरु (s,s ) होता है । उ०—युगो चारो । हरी तारो । । उ०——भाइयों के शेर और क्रीवदासे तुर्की के -अपरा, ; करे कीडीं । उखौ ब्रीडा । पृ० ६४ ।। क्रीडाकानन–सा पुं० [सं० क्रीडा कानन] दे० 'क्रीड़ावन' [को०] । झोतानाशय-सच्ची पुं० [सं०] धर्मशास्त्र के अनुसार अठारह प्रकार के क्रीड़ाकूट- सा पुं० [सं० क्रीडा+फूट = पर्वत] दे॰ श्रीकृार्शल' । विवादो में से एक । जब कोई मनुष्य किसी चीज को मोल लेने । उ०—बने मनोहर क्रीड़ाकूट विचित्र ये।--करुणा०, पृ० ३। । के बाद, नियम के विपद्ध, उसे फेरना चाहता है, तो उस समय क्रीड़ाकोप-सा पुं० [सं० क्रीडाकोप] खेल में रूठना । बनावटी जो विवाद उपस्थित होती है, उसे क्रीतानुशप कहते हैं। गुस्सा (को०)। क्रीतारथी -वि० [सं० कृतार्थ] दे॰ 'कृतार्थ' । उ०—रहेउ दोर क्रीड़ागिरि-सा पुं० [सं० क्रीड़ागिरि] ६० 'क्रीशैल' । उ०-क्रीड़ा कर जोरि चरन चित दीन्हेछ । मोर जन्म हरि अाहू क्रोवार | गिरि ते अलिन की अवली पली प्रकाश |--केशव (शब्द०)। कीन्हेछ ।-अकबरी०, पृ० ३३८ । क्रीड़ागुइ-सा पुं॰ [सं० क्रीडागृह] केलिमंदिर (कौ] । | क्रीन्स मा पुं० [सं० किरण] दे॰ कि रण' । उ०---भद्दा मोह कीबीचक्र-सा पुं० [सं० क्लोजक्र] छह यगढ़ का एक वत्त जिसका म पु ज अपारा । वचन तुम्हार छीन विधारा ।—कबीर दूसरा नाम महामोदारी बुरा है । ३०-यचो यो यशोदा जु सा०, १० ५२० । को लाष्टिला जो कनपूर्णबारी । जिही 'भक्त गर्दै सुद वित्त क्रील--सज्ञा • [सं० की] ३० 'क्रीडा' । ३०--तरु पर गर माये परारी पुकारी । यही पुस्दै सवै लासा तो लला देवकी निय वसन करि सुनि ब्रह्मा सकर हौ । तिन देर बेर बसी ो । करे गाए जाको महामोदरी सबै काव्य नीको । वजिप दास झील माधरस्य -११ २, ३ ३८४ } ॥ ३