पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५६८

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क्रमविकास क्रस्नफला ऋमविकास-सच्चा पुं० [सं०] धीरे धीरे होनेवाला विकास । क्रमश यौ०-क्रयकीत = खरीदा या मोल लिया हुआ । झ्यलेख्य = विक्रय उन्नति [को०] । | पत्र । वैन म । दानपत्र । क्रयविक्रय = खरीदने और बेचने की क्रमश –क्रि० वि० [सं० क्रमशस] १ क्रम से । सिलसिलेवार । २ क्रिया । व्यापार । क्रयविकयिक = व्यारी । सौदागर । धीरे धीरे । थोड़ा थोड़ा करके । क्रयण–सा पुं० [सं०] खरीद । क्रय । खरीदना [को०] ।। क्रमसंख्या—सच्चा श्री० [सं०] क्रम को व्यक्त करनेवाली सख्या या ऋयलेख्यपत्र-सया पुं० [सं०] पदार्थ के क्रय विक्रय सवधी पत्र सिलसिला । (शुक्रनीति) । क्रमसन्यास-सम्रा पु० [सं०] वह संन्यास जो क्रम से अर्थात् ब्रह्मचर्य, क्रय विक्रयानशय-- सच्चा पुं० [सं०] मनु के अनुसार अठारह प्रकार के गृहस्थ वानप्रस्थ अाश्चम में रह चुकने के बाद लिया जाय । विवादो मे से एक ।। क्रमाक—सच्चा पुं० [सं० क्रमाङ्ग] दे० 'क्रमसख्या' । । विशेष--दे० 'क्रीतानुशय' । क्रमात–वि० [सं०] १ क्रमश किसी रूप को प्राप्त । जो धीरे धीरे यारोह-सच्चा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ खरीदने बेचने का काम होती माया हो । २ जो सदा से होता आया हो । परपरागत । होना है। हाट । बाजार । मडी । क्रमानुकूल-क्रि० वि० [सं०] श्रेणी के अनुसार। नियमानुसार । ऋ ऋयिक-वि० पुं० [सं०] १ व्यापारी । बेचनेवाला । २ खरीदनेके अनुसार । क्रम से । सिलसिलेवार । था। [को०] । क्रमानुयायी-वि० [सं० क्रमानुयायिन्] उत्तरवर्ती । परपराप्राप्त । यिम सज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह कर या टैक्स जो माल उ०--चद्रसेन का उत्तराधिकारी कीर्तिसिंह पर क्रमानुयायी खरीद या बिक्री पर लिया जाय। रामसिंह (दूसरा) हुअा --राज०, पृ० ११८३ ।। ऋयी--सा पुं० [सं० ऋयिन्] मोल लेनेवाला । खरीदनेवाला । क्रमानुसार–क्रि० वि० [सं०] क्रमश । क्रमानुकूल । क्रमान्वय-क्रि० वि० [सं०] कम से । एक के बाद एक । क्लयोपधात-सच्चा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार पदार्थ के खरीदने को | रोकना। पदार्थ के क्रय मे १कावटें डालना । अमि--सच्चा पुं० [सं०] १ कीड़ा । कुभि । २. पेट का एक रोग जिसमें शो मे छोटे छोटे सफेव की पैदा हो जाते हैं। इन कीड़ों काट्य-वि० [सं०] जो बिक्री के लिये रखा जाय । जो चीज बेचने को घुन्ना या चुनूना कहते हैं । के लिये हो । झमिक–क्रि० वि० [सं०] १ झमयुक्त । क्रमागत । २ परंपरागत । अवान--- सच्चा स्त्री० [सं० कृपाण] कृपाण । तलव'र। उ०—चले ऋमिकता-सच्चा स्त्री० [सं० क्रमिक +ता] क्रमबद्ध होने की स्थिति। विचलसान नीसन मुख गहि झवान कर मे कढ़िय 1- सुजान ०, उ०-इस क्रमिकता और परिच्छिन्नता के कारण इसमें प्रम प० २० । तत्व अधिक गाढ़ और मानदमूलक होता है ।-पोद्दार अभिः । ऋत्य-सी पुं० [सं०] मासे । गोश्त । ग्र २, पृ० ६३७ । क्रव्याव--सा पुं० [सं०] १ मास खानेवाला ) वह जो मास खाता क्रमी --सा पुं० [सं० कृमि] दे॰ 'कृमि' । उ०—किल भिसटा हो । जैसे, राक्षस, गिद्ध, सिंह अादि । उ०—ले । के झज्याद भसमी श्रमी, इर्ण नर सने से थाय ।-वकी० ऋ०, भा॰ २, वह फिर चरते थे ।-- साकेत, पृ० ४१६ । २ वह अग पृ० ४६ । । जिससे शव जलाया जाता है । चिता की अग । ऋमुसा पुं० [सं०] १ सुपारी का वृक्ष किये। ऋशित-वि॰ [सं०] दुवं न । क्षीण काय कौ] । अमुक-सा पुं० [सं०] १ सुपारी का पेड़। उ०—-घर घर तोरण ऋशिमा--सा स्त्री० [सं०] दुबलापन । क्षीणवी (को०)। विमच पता के कचन कु म घरोए । क्रमुक रम के खंम् विराजत कुस' -सच्चा भी० [सं० कृषि] दे॰ 'कृष' । उ०Gणे क्रस भजे तन पथ जल सुरभि सिंचाए ।--रघुराज (शब्द॰) । २ नागर: गले घण गोलक तन लग्ग !-रा० रू० पृ० १०२ । मोथा । ३ कपासे का फल । ४ शहतूत का पै।।५ पठानी क्रस -वि० [सं० कृश] दुवं ल। कृश । उ०—तहाँ से अबतर लोध । ६. एक प्राचीन देश का नाम । रिडष इक क्रस तन अग सुरंग । देव दद्धौ जजु द्रुम कोई, के क्रमकी-सच्चा सी० [सं०] सुपारी का पेड़ (को०] । कोइ मृत मुअग - पृ० रा०, ६।१७।। झमेल-सज्ञा पुं० [सं०] दे॰ क्रमेलक' । । असान - सच्चा धुं० [सं० कृशानु] दे॰ कृशानु' । उ०-- वि यो क्रमेलक-सपा पुं० [सं०} ऊट । शुतुरे । उ०—मनहुँ ऋमेलक पीठ १ । सवये सुण निज थुई, टीटभ हूत छ नि । उणा बन चवारिया | धरयो गोल घटा लसत् ।—रस०, १० ४९ । महाभत्र जसे मान ।—बाँकी० ग्र०, भ० ३, पृ० ५१ । क्रमोग--सा पुं० [सं०] बलीवदं । वृषभ । बैल [को०)। कसोदर -वि० [सं० कृशोदर] दे० 'कृशोदर'। उ०-लौद लचीली क्रम्प -स। पुं० [सं० फर्म> क्रम ] दे० 'मैं' । उ०— सब सौति लौं लचनि घालत नहिं सकुचात । लगि जै बोदर लला व क्रमोदर प्रति ।---स० सप्तम, पृ० २४३ । | कह्यौ दुप सुनहु तुम्म । राजन्न तनय हम सौं न क्रम्म । कृन--सा पुं० [सं० कृष्ण] दे० 'कृष्ण' (--अनेकार्थ, पृ० ० १ ३७५ । १० ६१ ।। ऋय--सपा पुं० [सं०] मोल लेने की क्रिया । खरीदने का काम । क्रर नफा ---सच्चा मी० [सं० कृणफला] काली मिर्च । गोल मिर्च । ब्ररीद । क्रयण । भने कार्य ०, पृ० ६० ।