पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५६६

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क्योड़ा १०६१ ऋजुत्तम खुद ? धन्य हो ? (२) ऐसी विलक्षण बात क्यों न कहोगे ? क्रकुच्छेद--सच्ची पुं० [सं० क्रकुच्छन्द] भद्रकल्प के पाँच बुद्धों में से छि I.-( व्यग्य )। पहले बुद्ध। २७ फिस माँति ? किस प्रकार ? कैसे ? उ०-क्यो चसिए ऋक्कस -वि० [सं० कर्कश] कोर । दृढ । उ०—सुनि साहब वयो नि बहिए, नीति ने पुर नाहि । लुगा लगी लोयन कर, वजीर बोलि बल की अप्पान । क्रक्कस कर तें पर कमान तानी नाहक मने बँध जाहि ।--विहारी (शब्द॰) । लगि कानीं ।—पृ० ०, १२ । १४८ । क्योडा-सा पुं० [ हि० केवडा ] दे० 'केवड़ा' । उ०—अव तुम क्रतत+-सच्चा पुं० [सं० कृतान्त] कृवांत । काल । ३०–हुवै कि जाय घरे औतारा । क्योड। केतुको नाम तुम्हारी !--कवीर हाक हुक्कय, तवं ऋतृत वक्कियं ।–० रू०, पृ० ६४ । सा० पृ०, ३१ । ऋत -संज्ञा पुं० [सं० कृत] किया हुमा कार्य । कति । उ०—क्योनारी-सधा बी० [हिं० ] दे० 'कोइल री' । जग मैं वश उग्र गण जोई । ऋत रवि वंश समौ नह कोई । क्यौं –क्रि० वि० [हिं० श्यौं] किसी प्रकार । उ०—क्यौं हू लुकत रा० ६०, पृ० ८ । न लाज निगोड़ी चिवस सुप्त म उधू ।-नद में १, पृ० ३८८ । ऋतक-सज्ञा पुं० [सं०] वासुदेव के पुत्र का नाम । ऋत -वि० [सं० कात] सुदर । मनोहर । उ०-बहुरूपी रूपन वनि. क्रनयुग-सच्चा पुं० [सं० कृतयुग] सत्य युग। प्रथम युग । उ०-- अहि। क्रत गीत असमंजस गावहिं ।—प० रोसो, पृ० २३ ।। यज्ञ कवयुग से भी पहले चलते थे ।---प्रा० भा० प०, क्र ति--सज्ञा स्त्री० [सं० क्रान्ति] दे॰ 'काति'। उ०- तप्यौ हेम जय देह को क ति सोहै । सुजोत रवी कोटि दिव्यंत मोहैं । | पृ० ३०० । । पृ० रा०, २१ १६० ।। ऋतु---सा पुं० [सं०] १ रिचय । सकल्प २ इच्छा । अमिलाप । क़दन--सच्चा पुं० [म० क्रन्दन] १, रोना। विलाप । ३, युद्ध के । ३ विवेक। प्रज्ञा । ४ इद्रिय । ५ जीव । ६ विष्ण, । ७. समय बीरो का आह्वान। ३ गर्जन । उ०—प्यारी अक दुरि यज्ञ विशेषत’ अश्वमेध रही ऐसे, जैसे कैहरि क्र दन सुनि मृगछौनी -—नंद० ग्र ०, यौ०-ऋतुपति - विष्ण । ऋतुपशु- धोडा । ऋतुफ7= यज्ञ का पृ० ३७३।४ मार्जार । विडोन ।। फूल, स्वर्ग प्रादि । * दित--वि० [सं० क्रन्दित] १ ललकारा हुमा । अाह्वान किया ८ अषाढ़ (प्राय यज्ञ इसी महीने में होते हैं )। ६. व्रह्मा हुआ । २ रुदित । रोया हुअा को॰] । के एक मानस पुत्र । कदित-सज्ञा पुं० १ रोदन । विलाप ! ३ ललकार। चुनौठी [को॰] । विशेष—यें सप्त ऋपियों में से एक हैं। इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा फकच-सज्ञा पु० [सं०] १ पोप में एक योग जो उस समय पड़। के हाथ से हुई थी। इनका विवाह कम प्रजापति की है जव चार और ति। की सूखया का जोडे १३ होता है। कन्या क्रिया के साथ हुआ था, जिसके गर्भ से साठ हजार विशेष—इसकी गणना के लिये रविवार को पइला, सोमवार को बाल खिल्य ऋपि उत्पन्न हुए थे। दूसरा मंगल को तीसरा और इसी प्रकार शनिवार को साँतव १० विश्वदेवा मे से एक । ११ कृष्ण के एक पुत्र का नाम । दिने मानते और उस दिन को सख्या को तिथि फी संख्या में १२.प्लक्षद्वीप की एक नदी का नाम । जोड़ते हैं। जैसे, यदि शुक्रवार को सप्तमी, वृहस्पति को अष्टमी क्रतुद्रह-सज्ञा पुं॰ [सं०] असुर । दैत्य [को॰] । बुध का नवमी या रवि को द्वादशी हो, तो क्रकच योग हो। क्रतुध्वसी- सच्चा पुं० [सं०] दक्ष प्रजापति का यज्ञ नष्ट करनेवाले, है। इस योग में कोई शुभ कार्य करना वञ्चित है। थिव ।। २. करीने का पेड़ । ३ मारा । करवत । ४ एक प्रकार का ऋतुपति--सज्ञा पुं० [सं०] १ यज्ञ फरनेवाला व्यक्ति । २ शिव (को] । बाजा • ५ एक नरक का नाम । ३ गणित में एक प्रकार की ऋतु पशु-सज्ञा पुं० [सं०] घोडा। अश्व ) क्रिया जिसके अनुसार लकड़ी के तख्ते चीरने की मजदूरी स्थिर ऋतुपुरुषसच्चा पुं० [सं०] दे॰ 'यज्ञपुरप' । की जाती है । ऋतुफल-सा पुं० [सं०] यज्ञ का उद्देश्य या लक्ष्य [को०] । यौ॰—कचच्छद = केक वृक्ष । ऋचपन्न = सागौन वृक्ष। कतुभुक्-सच्चा पुं० [सं० ऋतुभुज] वह पदार्थ जो यज्ञ में देवताओं को | झकधपृष्ठी= फवई नाम की मछली । अर्पण किया जाता है ! क्रकचपद- सच्चा पुं० [सं०] १ गिरगिट । २ छिपकली (०]। ऋतुभुज- सच्चा पुं० [सं०] देवता ! सूर । ऋकचव्यवहा-सा पुं० [मं०] लडियो के ढेर को गिनने का एक ऋतुयष्टि-सी स्त्री० [सं०] एक पक्षी। प्रकारको०) ।। ऋतुराज-सज्ञा पुं० [सं०] १ राजसूय यज्ञ २. अश्वमेघ यज्ञ (को॰) । ऋचा–सच्चा पुं० [सं०} केनको । ऋतुविक्रयी--संज्ञा पुं० [सं०] धन लेकर यज्ञ का फल बेचनेवाला । ऋकर-सच्चा पुं० [सं०] १ करील का पेड़। २ किलकिला नाम शी ऋतुस्थला-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अप्सरा जिसका नाम यजुर्वेद में चिधिया । ३ का ! ४ अारा । कृवत । ५ दरिद्र । ६. आया है। पुराणानुसार यह चैत्र में सूर्य के रग पुर्य रोग (को॰) । रद्दती है । करट-सच्चा पु० [सं०] भरत नापक पक्षी (को०)। ऋतूत्तम--सी पुं० [सं०] राजसूय यज्ञ [क]।