पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५६५

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ऋत्वर्य १०६३ क्रमभंग ऋत्वर्थ-सम पुं० [सं०] यज्ञ अर्य वाद और विधान जो पुरुपये की मति कर्ता की इच्छा के अनुसार नही, वैदिक शास्त्र के नियम से अनुकूल होती है। जैसे--पौण मुसि प्रादि यज्ञों में फने की लिप्सा या अपनी इच्छा से प्रवृत्ति होती है और इस यज्ञ या उसकी फनविधि को पुत्पार्थ कहते हैं। पर उसमें प्रवृत्त होने पर वरस्यपाकरण, गौदोहन और उपवास अादि यज्ञ के अंग प्र यग संवधी कमों को शास्त्र की विधि और अर्थवाद के अनुकून ही करना पड़ता है। इस विधि अौर अर्थवाद को वयं कहते हैं । सं गुण यज्ञ जिस निमित्त किया जाये, वह फ प्रविधि है, और यज्ञ को एक एक अग, जिस प्रयोजन से किया जाय, व६ अर्यंवाद है। ऋथ-सज्ञा पुं० [सै०] १ विदर्भ नामक राजा को एक पुत्र और कैशिक का भाई । २ कंद का एके गण । ३ एक असुर का नाम । क्रथशिक-सा पुं० [सं०] १. ऋय और कैशिक का वंश । २. धृत राष्ट्र के एक पुत्र का नाम । क्रथन--संज्ञा पुं० [सं०] १ देवयोनि । २. घृतराष्ट्र के एक पुत्र का | नाम । ३ वध । हत्या । ४. काटनी (को॰) । क्रथनक-सज्ञा पुं० [सं०] १ सफेद अगर । २ ऊट । क्रम संज्ञा पुं० [सं० कर्दम दे० कर्दम । । अन --संज्ञा पुं० [सं० कण } कान। ३०-करपि मुट्ठि छम्मान तानि क्रन वान छतकिय ।---१० २० १६३६ ।। अन -सा पुं० [मै, किरण] किरण 1 करे । रशिम । ३०-नाछित्र छिपिग ससि क्रन प्रताप। उज्जास आप धन मार चाप ।-- पु० १०, २३६५ । अन्न-सा पुं० [सं० कर्ण, प्रा० ऋन्न] ६० 'कण'। उ०--कहै व्या स भरी कन इह उत्तर प्रमान । किं जानें कि होइधरी इक घट्टन जॉन -पृ० रा०, १७०३ ।। झप-सी पुं० [सं०] १ दयालु । २ कृपाचार्य । क्रपण----सी यु० [सं० कृपण] कृपण । के जूस 1 उ०--पैसे घोर दीर बोले, जिण सू सूर वीर रोझे । कातर कपण प्राण अातुर & छीजै ।-१० रू०, १० ११७ । झपासुब्बा सौ० [स० अपा] दे० 'कृपा' । क्रमानी-सच्चा स्त्री० [सं० फूपाणी] दे० 'कृपणी' 1 उ०-सुनी कान | वानी झपनी पाए १० सो, पृ० ४४ । पनी-सच्चा खी० [सं० कृपाणी दे० कृपाणी (छोटी) तलवार ।। २ करनी । के यो । कृल्पना । उ०—तुही मप वरान सी मोक्ष देतो । कुली काल दुष्पं कटन्न कपैनी !-j० रा०, ११६७ ।। कम'- सच्चा पु० सं०] १. पैर रखने की क्रिया । इ7 भरने की क्रिया । २ वस्तु या छायाँ के प' पर अागे पीछे अादि होने का नियम । पूर्वापर मुंवधो व्यवस्था । शैली । प्रणाली । तरती। चिलसिला । जैसे—(क) इन पौधों को किस क्रम में लगोगे? (ख) इन अब्दों का क्रम ठीक नहीं हैं। ३-७० मुहा०—क्रम से= क्रमानुसार । क्रि० प्र०—रखना ।---नगाना । ३ किसी कार्य के एक अंग को पूरा करने के उपरान परे अंग को पूरा करने का नियम् । कार्य को उचित रूप से धीरे धीरे करने की प्रणाची । क्रि० प्र०-बोधन । मुहा०—क्रम क्रम करके = धीरे धीरे। शनै शनैः । ३०~-जो' १ को दुरि चलने को करे । क्रम झम झरि इगे डग पग घरे । -सूर (शब्द॰) ऋम से, झम क्रम से = धीरे धीरे । ४. वेदपाठ की प्रणाली जो दो प्रकार की है-प्रकृति रूप । और विकृत रूप । प्रकृति रूप के दो भेद हैं-ड़ अौर योग । जैसे-'अग्निमौलपुरोहितम्' इस प्रकार का पाठ रूढ़ से अग्निम् ईळ पुरोहितम् इस प्रकार का पाठ योग फहनापगा। विकृत रूप के अाठ भेद हैं-जटा, माला, शिव, नेवा ध्वज, दंड, रयु मोर घन । उ०—पढ़न लग्यो शैमा व वैदा । पद क्रम जठा महु विन खेदा --रघुराज (शुब्द॰) । ५. किसी कृत्य के पीछे कौन सा कृत्य करना चाहिए इसकी व्यवस्था । वैदिक विधान ! का। ६.श्मण । ७ वामन का एक नाम जिन्होने पृथ्वी को तीन इगो में नापा था।८ वह काव्यालंकार जिसमें प्रथमोक्त वस्तु का वर्णन कम से किया जाय। इसे संख्यानकार भी कहते हैं । जैसे ---नुतन घन हिम कनक कातिधरे । ढगपति चुप भरल वॉइन वर । सरितपति गिरि सुरसिज यि । इरिहूर विधि जसव्र प्रति पालप। क्रमक'वि० [सं०] १ ब्यवस्थित । क्रमबद्ध। २ अर्ग जानेवाला । अग्रगामी । (को०] । क्रमक-संया पुं० १ क्रमानुसार नियमित अध्ययन करनेवाला छात्र । २ वेदमंत्रों के क्रमपाठ की पद्धति को जाननेवाली (को॰] । क्रमण-सच्चा पुं० [सं०] १. पैर । पाँव । २ पारे के अठारह सस्कारों में से एक । ३, घोड़ा । अश्वं (को०) १४. उल्लंघन (को०)।' ५ पग रखना । कदम रखना (को॰) । क्रमत-क्रि० वि० [सं० मत दे० 'क्रमश. (फो०] । क्रमदडक---सा पुं० [सं० श्रमदग्ईिक] वेदों के पाठ का एक प्रकार । झमन -क्रि० वि० [सं० फर्मया कमें से । क्रिया द्वारी । ठयवहारत । उ भगति भजन हरि नाँव है, दुबइ दुखि अपार । मनसा बाचा क्रमन कवीर मुभिरण सार |--कवीर ग्र०, पृ० ५। क्रमनासा -सा पी० [सं० कर्मनाशा] दे॰ 'फर्मनाशा' । क्रमपदभ्स १० [सं०] यदी के पाठ का ऐया प्रकार । झूमपाठमा १० [सं०] वेदों के पाठ का एक प्रकार जिसमें सुहिता यौर पाद दोनों को मिलाकर पाठ करते हैं। क्रमपूरक-सी पुं० [सं०] १ वृक्ष । मौलसिरी छ। पेठ । क्रमवद्ध-वि० [सं०] क्रमानुसार व्यवस्थित ! क्रमयुक्त (०] । क्रमभंग---स) पु० [सं० क्रमभङ्ग] क्रम या सिनसिना टूट जाना )।