पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५६४

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कौशिकी क्या' कौशिकी-सच्चा भी० [सं०] १ चडिका । ३. राजा कुशिक की पॉडी भडार को पूर्ण करने के लिये जनता से समय समय पर और ऋचीक मुनि की स्क्री, जो अपने पति के साथ सदेह स्वर्ग तिए जाये ।। गई थी । ३ कोसी नाम की नदी । कौसर--सधा पुं० [अ०] स्वर्ग का एक ऊड या हौज । चु०--हर एक विशेष- दे० 'कोसी' । कन्न । उसका है गौहर मिसाल । के गौ हृर तो क्या वल्के कौसर ४ एक रागिनी । हनुमत के मत से यह मालकों से राम की प्राइ मिसाल देविख०, पृ० २१८ । भर्यायो में से एक है । कोई कोई इसे पूरिया या अजयपाल कोसल(५ सा पुं० [सं० कौशल] दे० 'कोशल' । आदि के सयोग से उम्पन्न सकर रागिनी भी मानते हैं। कोसल्यास स्त्री० [सं० फशिया) ३० फाल्या' । ५. काव्य में चार प्रकार की वृत्तियों में से पहली वृत्ति । यौ०-कल्यानदन-: राम । जहाँ करुण, हास्य और शृगार रस का वर्णन हो और सरल वर्ण अवे उसे कौशिकी वृत्ति कहते हैं। दे० 'कौशिकी' । कौसिक स पुं० [सं० कोशिक] दे० 'कौशिक, कोसिया--साधा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का सकर राग (मगीत) । कोशिकी कान्हड़ा-सा पुं० [f० कोशिकी+फाइ] एफ सकर । कौसिलाई-सेवा द्री० [म० दशल्या ३० “कौशल्या' । उ०-दू राग जो कौशिकी और कान्हड़े के यो से बचता है । इसमें सब । स्वर कोमल लगते हैं । नितहि दोन्ह दु तुम्हहि कोसिला देव --मानस, २॥१९॥ कौशिल्प-सी पुं० [सं०] एक गोत्रप्रवर्तक ऋपि । कोसीद--० [५] सूदखोर । ब्याज लेनेवाला (०) । छोशिया-सुधा चौ० [सं० कोशल्पा] दे॰ 'कौशल्या' । ३०-कौशिल्या कौसी-सभा पुं० [सं०] सुदरी पज लेने की वृत्ति । २,प्रालय। तप कर्म जो फरिया । कारण काम राम भौतरिया ----कवीर

  • करिया में राम नरिया |--कवरि प के में पता। को। सी० पृ० ९६० ।

कौसो स –सा पुं० [सं० फपिशोपं] कगूर । गु' यद । उ०—(क) कौशीतकी सच्ची भौ• [सं०] दे० 'कौपीतकी' । सोवारी रहुटघाट कोसीम भकोर पुरविन्मास फया को मा कौशीधान्य-सया पुं० [सं०] वह अनाज जो कोश में उत्पन्न होते हैं। -फीति०, पृ० १८ । (ख) कचन कोट जरे कोसीसा |-- | जैसे तिल मादि । पदमावत, पृ० ४०१६ । कौशीभैरव-सच्चा पुं० [सं० दिन के पहले पहर में गाया जानेवाला कौन ला कोसुभ-वि० [सं० फीसुम्भ] कुर्नु पुडा झा । कुसु भक्ति । एक राग (को०)। कुगु भयुक्त [२०] । कोशील-सा पुं० [सं०] सूत्रधार । नट । कौशीलव--सा पुं० [सं०] नट या अभिनेता का कार्य [को॰] । कौसु भ’- सज्ञा पुं० १ जनी कुसुम । वनकुसुम । २. एक प्रकार | साग जो वहुत कोमल होता हैं । कोयवि० [सं०] रेशमी । रेशम की । उ०—सिकुड़न कोयेय बसने की थी विश्वसु दरी तन पर या मादन मृदुतम कपन कौसुम-वि० [मं०] १ कुसुम निमित । पुष्प संवधी चै] । तुम | छायी संपूर्ण सूजन पर कामायनी, पृ० २६३ । | कौसुम-सा पु० १.पराग २ पीतल या जस्ते के भस्म से निमित कौशैय-सञ्ज्ञा पुं० १ रेशमी वस्त्र।२ रेशम ।। | एक अनन् । पुष्पाजने । कुसुमाजन [२] । कौठमाडी- सझा भी० [सं० कौशमाण्ठी] वेदों की ३४ पवित्र करनै- कोसुरुविद—सपा पुं० [सं० फौसुरुविन्व] एक प्रकार का या जो इसे वाली ऋचाओ से से एक । | रात में होता है । कौशाख–स पुं० [सं०] कृषीस मुनि के पुत्र में श्रेय। कोसृतिक - सा पुं० [सं०) १, बाजीगर । जादूगर । ठगे । छली । कोषिक-सा पुं० [सं०] ६० ‘कोशिकी' । बदमाश । (ौ । कोषिकी-सच्चा स्त्री॰ [सं०] १. एक देवी । कौसेय, कौसेव --सा पुं० [सं० शेय] रेशमी वस्त्र । कौशेय, विशेष---इनकी उत्पत्ति कोली के शरीर से हुई थी । इनके दस उ०-स्थी निकेत समस्याम पीत कौसेव देय इति । घूमकेत बर हाथ हैं और इनका वाहन सिंह है । इनकी अाठ सखियाँ हैं। जलद काम उद्दित सु कोट रति ।-पृ० रा, २५४१ । जो सदा इनके साप रती हैं। कौस्तुभ-सच्चा पुं० [सं०] १, पुराणानुसार एक रत्न जो समुद्र मपने ' के समय निकला था और जिसे विरुण, अपने वक्षस्थल पर पहने ३.६० 'कौशि'। कौषीतक-सा पुं० [सं०] १.कुपीतक ऋषि के पुत्र और ऋग्वेद रहते हैं । २ तत्र के अनुसार एक प्रकार की मुद्रा । ३. घोड़े की एक शाखा के प्रवर्तक । ३.ऋग्वेद से अतर्गत एक ब्राह्मण । फी गर्दन के बाल (को०) ४ एक प्रकार का तेष (को०)। कोषीतकी---स। जी० [सं०] १, अगस्त्य मुनि की पत्नी का नाम । कोह- सज्ञा पुं० [सं० ककुभ, प्र० फ६] अजुन वृक्ष। २ऋग्वेद की शाख । ३ ऋग्वेद के अंतर्गत एक ब्राह्मण कोह–सधा पुं॰ [देश॰] इंद्रायन । या उपनिषत् ।। | कौडा--सच्ची पुं॰ [देश या हि० फौवा] वह लकी जो बरी के सहारे कौशीभन्यि-सा पुं० [सं॰] दे॰ 'झीणीधान्य' []। के लिये लगाई जाती है । वहुवा । कौवा।। कीबेय-वि० [सं०] रेशम से संबंध रखनेवाला । रेशम का । रेशमी। क्या--सर्व० [सं० किम्] एक प्रश्नवाचक शब्द जो उपस्थित का कोषेय–सं पुं० रेशम का बना हुआ वस्त्र । रेशमी कपड़ा । अभिप्रेत वस्तु की जिज्ञासा करता है । उस वस्तु को सूचित ट्रेकच्चा पुं॰ [सं०] वे ऋर मा इँस जो खजाने तथा वस्तु करने का शब्द, जिसे पूछना रहता है। झीन वस्तु ? न