पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५६२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

की चार कोवाठौठी फौलाचार--सा पुं० [सं०] [ वि० कौलाचारी ] कोल वंप्रदाय का होती, कुछ किनारे हटकर होती है। यह प्राय वृक्षो की साचार । वाममार्ग [को०] । टहनियों पर घोसला बनाता है । यह बैसाख से 'भादो तक अडा फौलालक-मंग पुं० [सं०] मिट्टी का पात्र [यै] । देता है, जिनकी सत्या ४ से ६ तक होती है । कहते हैं, कौलालक-वि० कुन्हार का बनाया 1 कुम्हार संबंधी (को०] । यह अपने जीवन में केवल एक बार अड़े देता है । अडे कौलिक'-सुधा पुं० [सं०] १ जुलाहा । १ पाखडी या ढोगी मादमी। का रग हुरी होता है और उस पर काले दाग होते हैं । ३ फौल सप्रदाय में दीक्षित व्यक्ति । वाममार्गी । शक्ति का छोयल भी अपने अड़े इसी के घोसले में रख जाती है। उपासे । ३०---तू है वेफर। मैं हू कौलिक 1-फुकुर०, पृ० ५। पर जब उसमे से बच्चा निकलता है, तुवे यह उसे अपने कौलिक–भि० कुन से सवति । परपरा से चला माता हुअा । घोसले से निकाल देता है। दूसरे प्रकार का कौवा प्रकार कोलिया-सा पुं० [ देश० ] एक प्रकार का छोटा बवूल जो वरपर मे वडा और प्राय एक हाथ लबा होता है । इसका में होता है । सव ग विरुकुल वाला होता है । इस जाति के कौवे अापस में कोलोन'- सपा पुं० [सं०] १ कौल मत को माननेवाला । २ भिखा बहुते लड़ते और प्राय एक दूसरे को मार डालते हैं। यह पूस से फागुन तक अडे देता है। इसे होम कौवा कहते हैं । शेप रिन का पुत्र । ३ पशु ( हाथी, मेढ़ा, भैसा अादि ) का सव वातों में यह प्राय साधारण कौवे से मिलती जुलता होता द्वद्व युद्ध । ४ तीतरो, मुरगो की लड़ाई । ५. युद्व । संग्राम । है । दोनो प्रकार के कौवे बहुत धूर्त होते हैं और प्राय किसी ६ कुनीनता । ७ कन्फ। अपवाद । तोहमत । ८ जननेंद्रिय । ऐसे स्थान पर जहाँ जरा मी मय की प्राश का हो, नहीं जाते। मुताग । पर शहरों और गांव में रहनेवाले कौवे बहुत ढीठ होते हैं। झीन-वि० १ ॐ चे खानदान झा । बानदानी । कुलीन् । २ साधारण कौवे जबतक अडे देने की आवश्यकता न हो, वशपरंपरागत [क] । घोसला नहीं बनाते । कौवे दिन के समय भोजन आदि के कौली--सा पु० [सं०] कुलीनता । खानदानीपन [को०] । कौलीय-- सा पुं० [ से० ] धात्रियों को एक प्राचीन जाति जिसका लिये अपने रहने के स्थान से १०-१२ कोस दूर तक निकल उल्लेरा वौद्ध शास्त्रों में प्राया है। जाते हैं । यह प्राय सभी खाद्य और अखाद्य पदार्थ खा जाते फौलेज-सा पुं० [अ० कालेज] दे॰ 'कालिज'। हैं । तोग कहते हैं कि इस को केवल एक ही पुतली होती है जो कौनेण+ -सा पुं॰ [देश॰] दे॰ 'कमल' । उ०-रहे निमाण समको अवश्यकतानुमार दोनो अखिों में घूमा करती है। यह बहुत | रे । रहे अलेप ज्यों जल कोले।--प्रा०, पृ० १६॥ जोर से कवि कवि शब्द करता है, जो वडा अप्रिय होती है। कोलेय-सया पुं० [सं०] एक प्रकार की मौत जो सिंहल के मयूर इसका माँस बहुत निकृष्ट होता है और मनुष्य या पशु जाम की समीपवर्ती नदी में मिलता था (को॰] । पक्षियों के खाने योग्य नहीं होता। कोलेयक-संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता। श्वान । कुक्कुर । उ०-यावर यौ०—कौवा गुहार या कौवारोर= बहुत अधिक बकवक । बहुत भाष्य के यिंगधि फरण में चर्चा है कि कुछ कौलेयक ( कुते ) | जोर जोर से और व्यर्थ बोलना । कागरोिल । प्रतिमास की कृप्या प्रतिपदा चतुर्दशी को उपवास करते हैं । मुहा०—कौवा गुहार में पड़ना या फँसना= हुल्लड़ या योर मे सुपुरा० अनि० १ ०, पृ० २३८ । पड़ना । बहुत बोलनेवालों के बीच में फंसना । कौवे उडाना - कौलेयक- वि० कुलीन । उच्च कुलवाता । अच्छे वंश में उन्न[को॰] । व्ययं या अनावश्यक कार्य करना । कोलो- सा पु० [हिं०] दे॰ 'लव' । २ बहुत धूतं मनुष्य । झाइयाँ। ३ वह लकड़ी जो वेडेरी के कोलो-क्रि० वि० [हिं० फव+लों ] कुवत । किस अवधि तक । सहारे के लिये उगाई जाती है। कहा। बहुवाँ । ४ एक ३०-गच तो दम दि फीजे छिन दिन में तुन जो छीजै । दिन प्रकार का सरकडे का खिलौना। ५ गले के दर तालू के दो कॉल १३ दर सच है एहि वीजै ।-प्रज० ग्र०, पृ०४३। झालर के बीच का लटकता हुअा मास का टुकड़ा+घाँटी । ल गर । लुलरी । कोल्ध–वि० [सं०] १ कौल मतावलवी । २. ऊचे कुल का । फुलीन महा- कौवा उठाना = वढ़ी य! अधिक लटकी हुई चटी को। कदिल-सा पुं० [सं०] वैर का फल । बवरीफल [को०] । | देवाकर ययाम्यान करना। विशे–फ भी कभी कोदा अधिक लटककर जीभ तक आ पद्ध। होवा---सु पुं० [ सै० झा, प्रा० काय ] [ सौ कौवी ( यव० है, जिससे कुछ दर्द और खाने पीने में बहुत कष्ट होता है। यह १ एक प्रसिद्ध पी जो से सार के प्राय सभी भागो मे पाया दश। बाल्यावस्या में अधिक मौर उसके बाद कम होता है। जाता है । क$ । काग। ६ कनकुटकी नाम का पेड, जिसकी राल दवा मोर रंगाई के काम विशेष—इसकी कई जातियों होती हैं, पर भारत में प्राय दो ही | अाती है । ७, एक प्रकार की मछली जिसका मु ६ वगले के प्रकार के मौके पाए जाते है । साधारण कोवा कार में डेढ़ मुह की तरह होता है । कुंकोट । जलव्यय । निश्च होता है । इसकी चोंच लंगे मौर की होती है और कौवाठोंटी--सा स्त्री० [सं० काकातुण्डी] एक प्रकार फी जता जिसके . पर मजबुत होते हैं। इसका धड़ पा प्रगला भाग खाकी और फुन सफेद और नीले रंग के त्या प्रकार में कौवे की नाक . पीथे । भाग ना होता है । इसकी नाक ठीक मध्य में नहीं के समान होते हैं ।