पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५५३

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झीही कॅधि कोहाई-सेवा पु० [३० कुक्ष, हि० कोख, कोखा पेट । उदर । होती हैं-री, काली सौर सदफ । भूरी सौर काली फलियाँ कोहान–इञ्च पु० [फा०] ट की पीठ पर का डिल्ला या कूदड़ । रोए दार होती हैं, सफेद विना रोए की होती हैं । काली और छोहाना -क्रि० अ० [हिं० कोह] १. रूढना । नाराज होना । सफेद तरकारी के काम में आती हैं, भूरी का अधिकतर मान करना । उ०——तुमहि कोहावे परम प्रिय अहुई -तुलसी व्यवहार ग्रौपच में होता है और इसके भूरे और चमकदार | ( अब्द०)। २. गुस्सा होना! क्रोध करना । रोयों के शरीर में लगने से जुड़ने और सूजन होती है । वैद्य कोहिरा--संज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'कोहरा'। उ०—दुर्ग के पूर्व में कोच अत्यंत वीर्यवर्द्धक, पुष्ट, मधुर आय वातघ्न मानी त्रिवेणी अपनी गौरवयुले झाँकी को कोहरे से प्रवेष्ठित किये जाती है । इसके वीज वाजीकरण चौपवो में पड़ते हैं । हुए हैं ।—प्र मधुन०, भा॰ २, पृ० ३८। पर्या०—कपिकृच्छ् । ग्रामगुप्ता । शुकशिवी । कंडुरा। मुद्यशोथा। कोहिल–संवा पुं० [देश॰] नर शाही दाज। शूका । झुकवती। ऋषभ । जटा। गावभंगा। प्रवृपा। कोहिस्तान--सरा पुं० [फा०] पर्वतस्थली । पहाडी देश । वानरी । तागली । कुइली। हेमवल्ली। वृष्, इत्यादि। कोहीवि० [हिं० कोह+ई (प्रत्य॰)] क्रोध करनेवाली 1ोधी। च-सच्चा [अ० कोच दे० 'कॉच'। उ०-वढिया साटन की गुन्ज । उ०--वान ब्रह्मचारी अत्रि कोही । दिश्वविदित क्षत्री मढ़ी हुई सुनहरी कौंच श्रीनिवास 7 ०, पृ० १७७। कुल द्रोही ।—तुलसी (शब्द०)। कौचा–सुंछा पुं० [?] ऊख के ऊपर का पतला और नीरस भाग कोहो---वि० [ १० कह 1 पहाड़ी। जितुको गठ बहुच पासे पास होती हैं। अगौरा । यौ०--फोही भाँग =एक प्रकार की भाँग जो विश्व में होती है कची-सच्चा भी० [सृ० कञ्चिका] वन की पत्नी टहनी । | घौर जिससे गाँजा या चरस नहीं निकलता। इसके बीजों का कच्च--सम्रा धी० [सं० कच्छ] केवांच। कौंच । वि० दे० 'कौंच'। तेल निकाला जाता है और रेशे से रस्त्री अदि बनती है। कांजर'--वि० [स० कजर] कु जर संवधी । हाय सवधी (वै । कोही-सा स्त्री॰ [देश॰] छाही नामक वाजे पक्ष की मादा । कजर-सझा पुं० उपवेशन या वैठने का एक तरीका क्यै] । कौह -सुश पुं० [ सु० क्रोध, प्रा० कोई 1 दे० 'कोह' । ३०--- कट-सा यं० [४, काउ' Trौ० कट–चा पुं० [ सं २ काट [ सौ कौंटेंस ] यूरोप के कई देशों } तुन्द्र जोगी वैरागी कहत न मानहु कोढ़ ।—जायसी ५०, के सामंती या बड़े बड़े जमीदारी को उपाधि जिसका दर्जा ब्रिटिश उपाधि 'अल' के बराबर का है। कोहू- सर्व० [हिं०] ३० 'को', उ०—जा दिन दोरि कहै कोहू कठ्य-सा पुं० [सं० फौण्ठप] मोरापन कु ठित होना (०] । सवनी, आए कुबर कन्हाई !-पोद्दार अभि० ऋ०, पृ० २३८ । कृॉडल, कौंडलिक-वि० [ च० कौण्डल, कौण्डलिक ] के इलवाला । झक-सा पुं० [सु० फौद्ध] १. भारत के एक प्रदेश का प्राचीन नाम । कॉकण । २. कोंकण का रहनेवाला । ३. कोकण का कैंडिन्य संशा पुं० [स० कौण्डिन्य] [ उौ• कोहिनी ] १. कुडिन शासक (को०] । | मुनि के गोत्र का व्यक्ति । २. कुडिन मुनि का पुत्र । कोंकण सा पुं० [नं० कोण] दे० 'कोक' कि०] । कोतल-वि• [सं० कौन्तल] कु तन देश सवधी । छु तल देश छ । कौंकिर —चंबा वी० [सं० फर्कद, हि० कंकर] हीरे अादि की जानी। कतिक-संज्ञा पु० [सं० फौन्कि] भालेवाला । बरछा चलानेवाला। कांच की किरिच । कवि का नुकीला कड़ा । कचि ची रेत । कीती-सच्चा स्त्री॰ [सं० कौन्ति रेणुका नाम का गंधद्रव्य । ४०--हो ता दिने कुरा मैं दे। जा दिन नदनैदन के नैनन कतैय-सझा पुं० [सं० कौन्तेय] १ कुती ३ युधिष्ठिर अादि पुत्र । अपने नैन मिलेह, सुन री सखी इहैं जिय मेरे भूलि न और २. अजुन वृक्ष । चितै हौं । अब हठ सुर् इहे तु मेरो काँकिर खै मरि जैहौं (- कद -संज्ञा स्त्री॰ [हिं०] ३० 'कोद' । उ०—-कैइंद्री वर बुद्ध । सूर (शब्द॰) । राइ सब कौंद अहिनौ —पृ० ० ७ । १६६ । कॉम'-सद्धी पुं० [ १० फीडम ] तीन पूछ या चोटीवाले लाल कौघ–सी स्त्री० [हिं० कौंचना] बिजली की चमक । उ०—नयनो की रंग के पुच्छल तारे जो वृहत्सहिंता के अनुसार सब्या मे ६० नीलम घाटी जिस रसघन से छा जात हो, वह कौंव कि जिस हैं और मल के पुत्र माने जाते हैं। ये उनर फी र उदय अत्र की शीतलता ठढक पाती हों -कामायनी, पृ० १०१। होते हैं। | कौंधना-क्रि० अ० [ १० कुवन+चमेकना = अन्घ या सुं० कबन्ध | कोकुम–दि० १. कु कुमयुक्त ।२ कु कुम के रंग का । तरिया[] । बिजली का चमकना । च'—संवा पुं० [सं० कञ्च] हिमालय वा एक अश। क्रौंच पदं? कौं धनी माझ स्त्री० [स० किङ्किणी] करधनी । कृचिसा भी० [सु० ऋच्छ] १. सैम की तरह की एक वेल । कौंधी-सभा सी० [हिं० फाँधना J१. बिजली की चमक । कौंध । केवॉच । ३. इस वेले की फलीं। उ०—(क) कारी घटा सघूम देखिपति अति गति पवन विशेष—इस लता में सेम की सी पत्तियाँ, फूल और फलियाँ चलायौं । चारौ दिता चितं क्रिन देवी दामिनि कौवा लायो । लगती हैं। सेम की छलियों से कौंच की फलियाँ अधिक गोल, -सूरः । ( शब्द०)। २ बिजली । उठ कौंधा सा चरित्र गी, गूदेदार और रोएँगर होती हैं। कौंच तीन प्रकार की जतोरण पर आया ।-साकेत, पृ॰ ४०३ । किये।