पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५५२

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कोशनायक १०६१ कषी तटवाल कोशनायक-सज्ञा पुं० [सं०] १ वह कर्मचारी जिसके जिम्मे खजाने जीव का मास मघर, शीतल, वायुनाशक अरि कफ बढ़ानेवाला का हिसाब किताब और उसकी रक्षा का गरि हो। खजानची। होता है। कोशाध्यक्ष । कुवेर का नाम (को॰) । कोशाग-- सा पुं० [सं० कोयाङ्ग] एक प्रकार का नरकुल या सरकदा कोशपति-सज्ञा पुं० [सं०] कोशाध्यक्ष | खजानची । वि०] ।। कोशपान-सच्चा पुं० [सं०] एक प्रकार की प्राचीन परीक्षाविधि । कोशाड-सझा पुं० [सं० कोशण्ड] अडकोश । विशेष--इस परीक्षाविधि के अनुसार यह जाना जाता था कि कोशावी- सच्चा क्षी० [सं० कोशाग्दी] दे॰ 'कौशाव' । अभियुवत अपराधी है अथवा नहीं । इसमें अभियुक्त को एक कोशरि-सा पुं० [सं०] खजाना ! भंडार ।। दिन उपवास करने के बाद परीक्षा के समय कुछ प्रतिदित कशातुक-सा पुं० [सं०] १ गजुर्वेद की कठ नाम की शाखा । १ लोगो के सामने तीन चुल्लू जल पीना पड़ता था । वेश । दाल (को०)। ३. तरोई (को॰) । कोशपाल--संज्ञा पुं० [सं०] १ खजाने की रक्षा करनेवाला । कोशातकी-- सझा ली० [सं०] १ तोरई । तराई । २ शुक्ल पई २ खजानची। ३. कुबेर (को०)। फी रात (को०)। ३ एक वृक्ष का नाम । पटोल (को०) । कोशपेटक--सज्ञा पुं॰ [सं०] वह पेटी या स दूक जिसमें बजाना रखा | कोशातकी- सबा पुं० [सं० कोशातकिन] १ व्यापार वाणिज्य । २ जाता है किो॰] ।। २ व्यापारी । २ वडवानल । बढदाग्नि [को०] । कौशफल--सूझा पुं० [सं०] १ अ डकोश । २ ज यिफन, । ३ घिया, कोशाचप-सी पुं० [सं०] कोशाध्यक्ष । खजानची। तरोई, लौकी, काही, खीरा, कुम्हडा इत्यादि का गछ । कोयविपति-संज्ञा पुं॰ [सं॰] दे॰ 'कोशाधिप । कोशफला--संज्ञा स्त्री० [सं०] घिया, रोई, लौकी, ककड़ी, खीरा, कोशाघोश---सपा पुं० [सं० खजानची । 'भारी । | कु हुई। अादि की लता । कोशाक्ष-सा पुं० [सं०] १० कोशाधिप । कोशल-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ सरयू या घाघरा नदी के दोनों तटो कोशाभिसंहण-सी पुं० [सं०] खजाने की कमी पूरा करना । पर का देश । विशेष–उत्तर तटवाले को उत्तर कोमल और दक्षिण तटवाले विशेप-चाणक्य ने इसके कई ढंग वताए हैं, जैसे--(१) बाकी को दक्षिण कोशल कहते हैं। किसी पुराण में इस देश के पाँच राजकर को एकदम वसूल करना । (२) बान्य फ़ा धृवीय खंड और किसी में सात खडे बतलाए गए हैं । प्राचीन काल में चतुर्थ म श टैक्स में लेना । ३. सोने, चांदी के उत्पादक, इस देश की राजधानी अयोध्या थी । व्यापारियों, व्यवसायियों तथा पशुपालको से निम्न भिन्न ढंग २ उपयुक्त देश में बसनेवानी क्षत्रिय जाति । ३ अयोध्या पर राजकर लेना । (४) मदिरो की अामदनी में से कर लेना। नगर । ४, एक बाग जिसमें गधार और धैवत तो फोमल और (५) घनियों के घर से धन' गुप्त दूतो तुरा चोरी करके शेष सव शुद्ध स्वर लगते हैं। प्राप्त करना । कोशला--सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं०] कोयल की राजधानी । अयोध्या । | कोशाम्र- सज्ञा पुं० [सं०] कोसम नामक वृक्ष या उसका फन । कोशलिक---सच्चा पुं० [सं०] उत्कोच। घूस । रिश्वत् । कोशिका--संज्ञा स्त्री० [सं०] पानपात्र । प्राबखोर [को०] । कोशवासी--संज्ञा पुं० [ सै० कोशवासिन् ] सीप, शंख, घोघा अादि में कोशिन-सा पुं० [सं०] ग्राम का वृक्ष। रसाल वृक्ष किये। रहनेवाले जीव [को०) । कोशिशु-सया पुं० [फा०] प्रयने । चेष्टा । उद्योग } धम् । काशवाद्ध-सा खा" 111 में ग्वाद्ध का राग । २ खजाने का कौश-सझा चौ॰ [सं०] १ ली । कुइमल। ३ वेजिकश ३ बढ़न। कि । पादुका । ४ अन्न की वालो का सूड (को०] । कोशशायिका-सा ० [सं०] कटार छुरिका आदि शस्त्र जो म्यान कोप–सा पुं० [सं०] दे॰ 'कोश' । में रखे जायें क्वे । कोपकार- सा पुं० [सं०] दे० कोशकार'। कौशिद्धि--- सा सी० [सं०] दिवप परीक्षा अदि से प्राप्त या होनेवाली कोषफल-सच्चा पुं० [सं०] १ के कोल मिर्च । २. दे० 'कोशफल'। शुद्धता [को॰] । कोपफला-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] १० कोशफला। कोशसघि---सज्ञा स्त्री॰ [ कोशसन्धि ] को श देकर सधि करना । धन कोपवृद्धि–सुझा सी० [सं०] दे॰ 'कोशववि' । देकर किया जाने वाला मेल । कोपातक----सज्ञा पुं॰ [सं०] ३० 'कोशातक' [को०] । विशेष---कौटिल्य ने लिखा है कि यदि शत्रु कोशसधि फरना कोषाध्यक्ष–सद्या पुं० [सं०] १ कोय की अध्यक्ष या स्वामी । वह चाहे तो उसको ऐसे वहुमूल्य पदार्थ दे जिनका कोई खरी-ने जिसके पास कोप रहता है । ३ वह जिसके पास किसी व्यक्ति वाला न ६ या जो युद्ध के लिये अनुपयोगी हो या जो । या संस्था का प्रायब्यय सौर रोकड़ अादि रहती है। रोकडिया। जगलिक पदार्थ हों। खजानची । कोशस्थ--सी पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार पाँच प्रकार के जीयो में कोविन - सज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कोशिन' [को०)। से एफ । शख, घोंघा अादि इसी के अंतर्गत है। इस जाति के कोपी-सद्मा औ० [सं०] दे० 'कोशी' (को०] ।