पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५५१

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, कोष्ठ-सुंबा पुं० [सं०] १ बॅदर की मध्य में । पेट का भीवरी कोण–वि० [सं०] कुछ गुरम और कुछ उदा । दुणे । कुनकुना । हिस्सा ।। कोस'- समा पु० [स० केश] दुरी की एक नाप जो प्रा पीन क ल में -~-कोळवई। कोप्नुद्धि । ४०००हाय, या किसी किसी के मत से ६००० हाव की होती २. शरीर के अंदर का स्रोई वह भाग जो किसी अविरण से धि। धैा । अाजकल को प्राय दो मील का माना जाता है। हो और जिसके अंदर कोई विशेष शक्ति हुनु हो । जैसे,-५ मुहा०-कोस या काले फसा = बहुत दूर । फो से दूर रइना= पक्वाणये, मूत्राशय, गभाशय, अादि । ३ कोठा। घर का | अलग रहना । वहुत बदना । कोनो भागना = दे० को भीतरी भाग । ४ वह स्यान जहाँ अनसन्ह किया जाये ।। दूर रहना' । । गोला। ५. कोम । मडार । खजाना । ६ प्रकार । कोट । कोसुरे-- ती पु० म० फोश] फून क सं 1ट। फूल के भीतर का वह शहरपनाह । चारदीवारी 1 ७, वह स्यान जो किसी प्रकार स्थान जी मकरंद रहता है । उ०-- केवल प्रवेश मेंवर जो चारो योर से घिरा हो । ८. शरीर के भीतरी छह चक्रो मे से किया। कोमें काकोर स न रख लिया ।—मा उनल०, एक, जो नाम के पास है। इसे मणिपूर भी कहते हैं । १. पृ० १९८ ।। दे० 'कोष्टक'-३ । कोक-संज्ञा पुं॰ [सं॰ फौशिक] दे० 'कौशिक' । उ०-एक दिहावें कोष्ठक-सुवा मुं० [सं०] १. किसी प्रकार की दीवार, लकीर या ग्नौर मुनिराज अजोया कोसके अवि कधौ ।-रवु ० ०, कोई चीज़ जो किसी स्याने या पद को घेरने के काम में ग्राती १० ६४ ।। हो । २, किधी प्रकार का चक्र जिसमें बहुत से खाने या घर कोसना-क्रि० स० [सं० फ़ोशन] शाप के रूप में गालि देना। दुवं चन है। सारण। ३. निखने में एक प्रकार का चिह्नी का जोड़ा कहकर बुरा मानना । जिसके अंदर कुछ वाक्य या । मुहा०-पानी पी पी कर कोसना=बहुत अधिक कोसना । कौसना अक अादि लिखे जाते हैं। फाइना = शाप और गो की देना । यह कई प्रकार का होता है, कोसभ--मुच्ची पुं० [सं० शाम्र] दे॰ 'कोसम'। कौसम-सच्ची पु० (मु० कोशान्न] एक प्रकार का बड़ा पेड जि के वीज जैसे,—({}, [] अपात्र के काम आते हैं। आदि । दिशेप-यह पेड़ पंजाब, मध्य भारत अौर मदरात में अधिक्ता विशेष-(स) जब यह चिह्न से होता है और इसका पतझड़ प्रतिवर्ष होता है । इसके हीर किसी वाक्य के अंतर्गव की ल हड़ी ललाई fए हुए भूरी, चहुवे कडी और मजबूत होती प्राता है, तब इसके अंदर है और इमारत के काम में आती है। इसे है। और खेती प्रए ए शों का परम्पर के औजार भी बनाए जाते हैं। इसमें लाख बहुत लगती है तो व्याकरण संबंध होता है। [ कोष्ठक सारणी । और बहुत अच्छी होती है। इसका फल कुछ खट्टापन निए पर प्रधान वाक्य से व्याख्यान या निदर्श नरूप अर्थ सबध होते हुए मीठा होता है । वैद्यक में इसका फल सब्णु, गुरु, पित्तवर्द्धक हुए भी प्राय उसका व्याकरणसंबध नहीं होता । (ख) गणित नौर दाकारक माना गया है। इसके वीनो ने एक प्रकार का में इन चिह्नों के अंतर्गत माए हुए पक कुन मिलकर एके ते? निकल ।। है, जो वैद्य 5 के अनुसार सारक, पाचक प्रौर समझे जाते हैं और उनमें से किसी एक अंक का कोष्ठक के वत्र फरक होता है । सुश्रत में लिखा है कि इत्र खेल के मलने बाहरवाले किसी प्रक से कोई स्वतय सवेष नहीं होता है। से कोढ़ यो फो 37 अच्छा हो जाता है। ४. कोप्छ। अन्नभंडार 1 ५. चहारदीवारी । ६. ईट, चूना प्रादि कोसल --सपा पु० [सं०] दे० 'कोन' । से निर्मित वे३ स्थान जहाँ पशु जज पीते हो (को०) । कोसला -सुद्धा [सं०] अयोध्या नगरी (क्वैः । कोष्ठपाले---सम। पुं० [सं०] मिसी नगर या स्थान की रक्षा करनेवाला कोसली- स्त्री० [सं०] पाङ जाति की एक रानी जिसमे ऋपम यति । चनिने है ।। कोष्ठबद्ध–संवा पुं० [सं०] पेट में मल का रुकना । कब्जियत । कोसा'- संज्ञा पुं० [हिं० को ] एक प्रकार का रेशम जो म रते कोष्ठबद्धता-सा स्त्री० [सं०] ३० ‘कोष्ठबद्ध । | में अधिक हो । है । कोष्ठशुद्धि-सा सी० [सं०] पेठ । मलरहित मौर विल्कुल साफ कोसा-सा पुं० [सं० कोश = प्याला) [ फोसिया मिट्टी ६ | हो जाना । | बढ़ा दिया ज पा फनै पा खाने पीने की वस्तुएँ रखने के कोष्ठागार--सा पुं० [सं०] भांडार ! भडारखाना । काम में आता है । कोष्ठागरिक—सा पुं० [सं०] १. भंडारी । भंडार का प्रयान । कोसा-सुक्षी पुं० [३०] ६० 'धोकाटी' । २. कोवा में रहनेवाला जीव मे ।। कोवा-वधा पुं० [३०] एक प्रकार का गाढ़ी रेस या अवलेह जो कोठारि ---संज्ञा क्षी० [सं०] पाचन शक्ति । जठरानल (बे० । चि होनी सुपारी बनाते समये सुपारियों को उtiलने पर कोष्ठर-सपा • [सं०] वह पत्र जिसमें किसी मनुष्य के जन्मकाले ठूर है । पौर जिसकी सहायता से पटिया में भी मोर प्रह, नत्र अहि दिए हैं । उन्मपत्री । सुपyf५८ रन : ६३, दि ३६ ३ ३ ३ ।