पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५५०

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कौल १०६६ कॉलो दिया। उन्हीं दोनो के चयोग से कौल वर्ष की उत्पत्ति हुई । कोलासमा क्षी० [सं०] १ छोटी पीपल । पिप्पी । २. अव्य । स्कंद पुराण के हिमवत् खडे लिखा में है कि कोल एक म्लेच्छ ३.वेर का पेड़ । जाति थी जो हिमालय में शिकार करती हुई भूमी करती थी। कोला-रामा पु० [देश॰] गीदड । १२ एक जगली जाति । उ०--वन हित कोल किरात फिसोरी। कोला---सा पु० [अ०] अफ्रिका | गर्म प्रदेश में होनेवाला एक पैर रची पिरचि पिय मुख मोरी ---मानस, २ । ६० । जिराके फल अपुरोट ही रह होते हैं । विशेष--ब्रह्मवैवर्त पुराण में कॉल को लेट पुरुप और तीवर स्त्री । से उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति लिखा है । स्कदपुराण में इसे विशेप-इनके फता के बीजों में क्रचिट दूर करने और नशे म्लेच्छ जाति लिखा है । पद्मपुराण में लिया है कि जब यवन, पर चस्का छुडाने का मुण होता है । ये वीज निनंती के समान पनव, फोलि, सप प्रादि सगर के 'भय से वशिष्ठ की शरण में जुले साफ करने के काम में भी बात हैं। अाए, तब उन्होने उनका सिर शादि मुकर उन्हें केवल । | कोलाहट-सया पुं० [सं०] वह नृत्य में प्रवीण मनुष्य जिसके म ग व सस्कार भ्रष्ट कर दिया । अाजकल जो कोल नाम की एकजंगल टूटे हैं, जो में गो को उद मोइ म हो जो तलवार प धार पर नाच रात्री ही मोर जो मुह से मोती पिरों जाति है, वह प्रार्थों से स्वतत्र एक आदिम जाति जान पड़ती। सवा हो। है, और छोटा नागपुर से लेकर मिरजापुर के जगतो तुक फैली । कोलाहल -सधा पुं० [सं०] १ बहुत से लोगो की स्पष्ट चिनहट । हुई है। कोल-सच्चा पुं० [मं० फवल ] चवेना । दाना । चरवन । शोर । होरा । हुला । रोना । क्रि० प्र०-फरन।।-मचाना ।—होना । कोलकद--सच्चा पुं० [सं० कोलकन्द] एक प्रकार का कंद । विशेष-काश्मीर में इसे पालू कहते हैं। यह गरम होता है मीर २. संपूर्ण जाति का एक संकर राग जो कल्याण कान्हू मौर कृमिदोष दूर करता है । इस कैद के ऊपर सुगर के से रोएँ । विहाग के मैन से बनता है। इसे मर जुद्ध म्वरनगर्ने हैं। होते हैं, सलिये इमे वाराही कद भी कहते हैं । कोलि-सा श्री० [सं०] बदरी । देर । कफ घु [2] । कोल क सज्ञा पुं० [सं०] अखरोट का पेड़ । २. काली मिरिच | ३. कोलिर-सया पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का झाष्ट्रोदार पेड। | पीतलचीनी । । विशेप-यह वृक्ष हिमालय, परम भोर मध्य तया द६ मारत कोलक—सद्मा पु० [देश॰] एक प्रकार का छोरा लपा औजार में होता है । इससे एक प्रकार का गोंद निकरता है नौर इसकी जिसको रातह पर दनदने होते हैं । इससे रेती र अारी तेज छाल रेंगने और चमड़ा सिनहाने के काम में आती है इसकी की जाती है । पत्तियाँ चारे के कान में पाती हैं । वन में इसकी पत्तियो में कोलककंटी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं०] खजूर का एक प्रकार (को॰] । तुमाकू या सुरतो लपेटकर जीडो बनाती हैं। कोलका--सूखा पी० [सं० कोलक गोल मिर्च । उ०--तिक्ता उखना कोलिक--सा पी० सं० फोनि को जुनाहा । ततुवाय । | कोलका हुम्नफला पुनि नउ !-अनेकार्य ०, पृ० ८० । । कोलिवल्लिका-सा स्त्री० [सं० फसवन्लिफा] कपिलता । केवींच। कोल कुण- सच्चा पुं० [सं०] मत्कुण । खटमल (को०] । । कोलगिरि--स' पुं० [सं०]दक्षिण भारत का कोनाचल नामक पर्वते ।। –अनेायं०, पृ० २५।। | इसे कोल मलय भी कहते हैं । कोलिया-सच्चा धी० [स० कोत = रास्ता] १ तग रास्ता । पुतली कोल दल–सच्चा पुं० [सं०] नख नामक गदव्य । गली। २. वह खेत जिस । प्राकार पतला और कोलना–क्रि० ० सं० ौड़न] लफड़ी, पत्थर मादि को बीच से। लवा हो । खोदकर पोला या खाff करना । । २ काड़ लेना । उ०--- कोलियाना-क्रि० अ० [हिं० फोलिया+ना (प्रत्य॰)] १. धुनि सुनि अौरे होते भिर चरी गति भौरि विचारिनि को कोलियाना–सा पुं० [हिं० को+धना (प्रत्य०) ! किसी मति कौले घनानंद पु० ४७५ । गाँव का वह भाग या स्थान जहाँ फों रहते ही कीलियों के कोलपार–सा पुं० [देश॰] मझौले कद का एक प्रकार का वृक्ष । रहने का स्थान ।। विशेष—यह बरावर और दार जिलिंग की तराइयों में होता है। कोली-सी स्त्री० [सं० कोड़, T० कोन] १. अलिगन के समय इसमें एक प्रकार के फ लयाँ लगती हैं, जिनका मुरब्बा वनता दोनो मुजा के बीच का स्थान ! गोद। अकवार । है । इसके लकडी मजबूत होती है और खेती के औजार बनाने और इमारत के काम में आती है । चरने के समय लकड़ी क्रि० प्र०--में भरना या सेना-भरना । का रग अ दर से गुलाबी निकलता है। पर हुवा लगने से वह | ३ कोना । कोण । ३. दे० 'कोलिय'। झाला हो जाता है। इसे सोना भी कहते हैं । कोली-3-सी पु० [हिं० कोरी] हिदू जुलाहा । कोरी । उ०—ाड कोलपुच्छ-सज्ञा पुं० [सं०] सफेद चील । कि । क क । देवि के उजत तिय ज्यो कोनी को रूप । त्योही धौरे केस सुधि कोलमुल ---सा पुं० [सं०] पिप्लीमल (को०) ।। बुरी लगत नर रूप !--ब्र० ऋ०, पृ० ७८ । कोलशिबी-सन्ना जी० [सं० कोलम्विो ] सेम की फली। कोली---सज्ञा स्त्री० [?] है कालापन जो यो ग्रौर पैरो मे मेहुदी कोच सा-सा पुं० [३०] ६० ‘इगदी' । लगाने के काम में आता है।