पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५४९

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झवी १०६७ कोशज कोली- खंया ० [सं०] वेर का पैः। वदरी [को॰] । तलवार, कटार मादि का म्यान । ७. आवरण । खोल । कोलंदास पु० [सं० कोन = बेर+अण्ड] मढ़ए का पका फल । जैसे,वीजकोश । । गोलंदा । कोइना । विशेप-वेदांती लोग मनुष्य में पांच कोशों की कल्पना करते हैंकोल्याञ्च स्त्री० [सं०] पीपर। पिप्पली झे०] } अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंवमय । अन्न कोल्हाड़-सज्ञा पुं० [हिं० कोल्हू + आर (प्रत्य॰)] । वह स्थान जहाँ से उत्पन्न और अन्न ही के अधिरि पर रहने के कारण वह को अव पैरकर रस निकाला और छ बनाया जाता हो । अन्नमय कहते हैं। पच कमेंद्रियों के सहित प्राण, अपान आदि कोल्हु'--संज्ञा पुं० [हिं० कूल्हा कुश्त्री का एक पेंचे। ३० कूल्हा' ।। पंचप्राणों को प्राणमय कोश कहते हैं, जिसके साथ मिलकर कोल्हुवा--संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कोल्हू' ।। देह व क्रियाएँ करती है। प्रोत्र, चक्षु आदि पाँच ज्ञानेंद्रियो कोल्हुग्राडा--सझा पु० [हिं०] १ 'कोल्हाड' । के सहित मन को मनोमय कोश कहते हैं। यह मनोमय कोल्हू---सबा पुं० [हिं० कुल्ही या देश॰] वेल या ऊख पेरने का यंत्र जो कोश अविद्या रूप है और इसी से सांसारिक विषयों को | कुछ कुछ हुमत के प्रकार का बहुत बड़ा होता है। प्रतीति होती है। पंच ज्ञानेंद्रियो के सहित बुदि सो विज्ञानमय विचैप---यई प्राय. पत्थर का और कभी कभी लकडी या लोहे कोश कहते हैं। यहीं विज्ञानमय कोश कतृ रद मोक्तृत्व, सुख. का भी होता है। इस बीच में थोडा सा खौवना स्याने होता दु.ख अादि अहंकारविशिष्ट पुरुप के संसार का कारण है। है जिसे है या केही कहते हैं। इसके पैदे में एक नानी सत्वगुण विशिष्ट परमात्मा के प्रावक का नाम अनंवैमय होती है जिसमें चै तेल या रम निकलकर बाहर की ग्रोर रखे कोश है। ६ वैली । ६. संचित घन् । १०. वह ये जिसमें अर्थ या हुए बरतन में गिरता है। कड़ी के मध्य में लकड़ी का मोटा और ऊँचा ना लगा रहता है जिसे जा कहते हैं । यह जाठ पवय के सहित शब्द इकट्ठे किए गए हौं । अभिष्ठान । जैसे, अमरकोछ । मेदिनीकोछ । ११. समूह । १२, खान से नधे हुए वैन या वैनों के चक्कर काटने से घूमती है, जिसके ताजा निकला हुआ सोना या चाँदी । १३ अ दकोश । कारण कडी में ही हुई चीज पर उसको दाब पडती है । १४. योनि । १५. सुश्रुत के अनुसार घाव पर घने क्रि० प्र०--पेरता १-चलना ।। की एक प्रकार की पट्टी । १६. एक प्रकार्य का पात्र मुहा०—कल्लू काटकर नगरी बनाना= कोई छोटी चीज बनाने जिसका व्यवहार प्राचीन काल में दो राजामों के बीच सुधि के लिये बड़ी चीज नष्ट करना । थोड़े से लाभ के लिये बहुत स्यिर करने में होता था ! १७, ज्योतिष में एक योग नी हानि करना । कोल्हू का वैल=(१) बहुत कठिन परिश्रम जो शनि और वृहस्पति के साथ किसी तीसरे ग्रह के आने से करनेवालो । दिन रात काम करनेवाला । (२) एक ही जगह होता है । १८ रेशम का कोय । कुसयारी । १६ कटहल बार बार चक्कर लगानेवाला । कोल्हू में डालकर पैरना= अादि फलों का कोया । २०. दे० 'कोशपान' । २१ . घनापार। बहुत अधिक कष्ट पडू चार प्राण लेना । बहुत दु ख देकर खजाना (को०) । २२. वादल । मेघ (को०)। २३. लिए । जान से मारना । शिश्न (को०)। २४. तुरले वस्तुओं के रखने का पात्र । हना—िसा पुं० [देश॰] एक प्रकार का मोटा चावल जो पंजाब में होता है। (को॰) । वि , कोवंड -सा पु० सं० फोदण्ड दे० 'कोदड' । उ०— कोक-संज्ञा पुं० [सं०] १. अंडा । २ अडकोश [वै] । कर करपि फोर्वेइ वान }--पृ० स०, ६६ । १४८५। । कौशुकार--पु० [सं०] १. तलवार, कटार आदि के लिये म्यान बनानेवाला। २ शब्दकोष बनानेवाला । अर्थ सहित शब्द वा--सा पुं० [मु० को कटहल का वीज जिस कोश में रहता हैं। कोया। उ०—कहर कोवा मेवा त्या सोड पवावी का क्रमानुसार संग्रह करनेवाला । ३ रेशम का कीड़ा । ४.एक प्यार - ज० शु०, भा० १, पृ० ११ ।। प्रकार की ऊख । कुसियार ।। वार--संज्ञा पुं॰ [ देश० ] एक प्रकार का जलपक्षी । । कोशकार–सद्य पुं० [सं०] रेशम का कीडा [को०] । वेद---वि० [सं०] [ वि० ख० कोविंदा 1 पडित । विद्वान् । कोशकीट-सेवा पुं० [सं०] रेशम की कौड़ा। विद्य। उ०-- केलि लीप कोविदा रहै। प्रेम भी मर्द कोशकृत--संझा पुं० [सं०] एक प्रकार की ईख कोal, |गज जिमि चहै ।-नंद प्र०, पृ० १४७ । कौशगृह--संज्ञा पुं० [सं०] १, भंडारघर। २. धनगर । खजाना की। दार संज्ञा पुं० [सं०] १. चनार का पेड़ । २, कचनार का ar ॥ वैट । ३ कचनार का कौशग्रहण---सच्चा पुं० [सं०] एक प्रकार की प्राचीन काल की परीक्षा काहिए विधि ! कोपान (ो । |-"सभा पु० [सं०] १ ।। ।। ३ पट । हवा । गोलक। कोशचंच--संवा पुं० [सं० कोशचञ्च] सरईस पक्षी । सारस कीal। स, नैकोश । ३ फूलों की बच्ची कली । ४. मद्यपात्र । कोशच-सा पुं० [सं०] सारस । तरतन । ६ कोशज--उल्ला [सं०] १. रेशम । २ सीप, शंख, घोंघे आदि में रहने वाले जीव । २. मोती ! मुक्ता। फुल ! २-६६