पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५४४

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कोदास १०६० कोम्वशिर कोदार---संज्ञा पुं० [सं०] अन्नविशेष [को०] । कोदेकी-सच्चा स्रो० [देश०] मोरनी । बिहोर । कोदो—सद्मा पुं० [सं० कोद्व] दे० 'कोदो' ।। कोदो- सच्चा पु० [सं० कोद्रव] एक प्रकार का कदन्न जो प्राय सारे भारतवर्ष में होता है । कोदर । फोदई । विशेष----इसका पौधा धान या बडी घास के प्रकार का होता है । इसकी फसल पहली वप होते ही वो दी जाती है और भादो मे तैयार हो जाती है । इसके लिये बढ़िया भूमि या अधिक परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती । कहीं कही यह रूई या अरहर के खेत में भी धो दिया जाता है। अधिक पकने पर इसके दाने झडकर खेत मे गिर जाते हैं, इसलिये इसे पकने से कुछ पहले ही काटकर खलिहान में डाल देते हैं । छिलका उतरने पर इसके अदर से एक प्रकार के गोल चावल निकलते हैं जो खाए जाते हैं। कभी कभी इसके खेत मे अगिया नाम की घास उत्पन्न हो जाती है जो इसके पौधों को जला देती है। यदि इसकी कटाई से कुछ पहले बदली हो जाय, तो इसके चावलों में एक प्रकार का विप मा जाता है । वैद्यक के मत से यह मधुर, तिक्त, रूखा, कफ और पित्तनाशक होता है । नया कोदो गुरु पाक होता है । फोड” के रोगी को इसका पत्र दिया जाता है । मुहा०-कोबो देकर पढ़ना या सीखना = अघूरी या वेढगी शिक्षा पाना। कोदो दलना= निकृष्ट पर अधिक परिश्रम का काम करना । छाती पर कोदो दलना = किसी को दिखलाकर कोई ऐसा काम करना जिससे उसे ईष्य और ताप हो । किसी को जलाने या कुढ़ाने के लिये उसे दिखलाकर या उनकी जानकारी में कोई काम करना । कोदो -सखी पुं० [सं० फौव्रव] ३० कोदो' । उ०-फटे नाक न | टूटे फाधन कोदो र्को भुस खैहै ।—कबीर ग्र०, पृ: २८।। कोद्रव-सच्चा पुं० [सं०] योदो । कोदई ।। कोद्वा-सा पुं० [सं० कौव्र च] मडा नामक अन्न । उ०—और कोद्रा भी हैं किंतु वह हमारे देश को कोदो नही मड़ा (राग) है।--किन्नर०, पृ० ७० । कोघ —सझा जी० [सं० कुत्र, हि० कोति फोद] दे॰ 'कोद' । उ० नर नारी सब देखि चम्ति ने दावा लग्यो चहूकाध ।---सुर (शब्द॰) । कौन-सच्ची पुं० [सं० कोण] कोना । मुहा०—फोन देना = कोने से इल को घुमाना । फोन मारना = | जोतने में छुटे हुए कोनो को गोड़ ना ! कौन-सच्चा पुं० [देश०] नौ की सख्या ।—(दलाल) ।। । यौ॰--फोनलाय । कोन --सवं० [हिं०] दे० 'कोन' । उ०—(क) कही सूर कोन कर पतिसाह । कर तब जग बचौं नहिं ताहि ।-० रासो, पृ० ५५ । (ख) फिरि फेरि बोलावहि साहि मोहि सो मानि दिखावउ वोन मुख ।–अफवरी०, पृ० ६६ । फोनलाय-स। पुं० [देश॰] १९ की सख्या --(दलाल) । कोनसिला--सया पुं० [हिं० कोना + सि] कोनिया की छाजन में वह मोटी लकड़ी जो वेस के सिरे से दीवार के कोने तफ तिरछी गई हो । कोरो इसी के आधार पर रखे जाते हैं । कोना-सपा पुं० [सं० कोण] १. एक बिंदु पर मिली हुई ऐमी दो रेखायों के बीच का अतर जो मिलकर एक रेवा नहीं हो जाती । अ तराल । गोश । २. तुला किनारा या छोर । नुकीला सिरा । जैसे- उसके हाय में शीशे का कोरा वैसे गयो । मुहा०—फोना निकालना = किनारा वरना । छोना मरिना या छांटना = दे० 'कोर मारना' । | ३ छोर का वह स्थान जहाँ लंबाई चौड़ाई मिलती हो । वूट । जैसे,-- दुपट्टे का कोना । मुहा०--कोना दबना= दे० 'कोर दवना' । ४ कोठरी य। घर के अंदर फी वह करी जगह जहाँ नवाई चौड़ाई की दीवारें मिलती हैं। गोश । मुहा०- फोन में तर= घर के अंदर का ऐसा स्थान जहाँ दृष्टि | जल्दी न पड़ती हो । छिपा स्थान । जैसे,—(क) उमने सारा कोना अंतरी ठूढ़ डाला। (ख) ही कहीं कोने अँतरे में पड़ी होगी । ५. एकात और छिपा हुमा स्थान । जैसे,-कोने में बैठकर गाली देना वीरता नहीं है । उ०-- पर नारी का रच, ज्यो लह सुन की खन् । कोने वैठ के खाइए, परगट होप निदान - कवीर (शब्द॰) । मुहा॰— कोना झाँकना किसी बात के पड़ने पर भय या लज्जा से जी चुराना। किसी बात से बचने का उपाय करना जैसे--तुम कहने को तो सब कुछ कहते हो पर पीछे छन्। झांकने लगते हो । ६ चार मागो में से एक । चौथाई । चहाम । -(दलाल) । मुहा०-कोने से= चार प्राने रुपए के हिसाब से । कोनालक--सा पुं० [सं०] दे॰ एक प्रकार का जप [को०] । कोनालका-सया स्त्री० [सं०] दे० 'कोनालक' । कोनिया-सा स्वी० [हिं० कोना+इया (प्रत्य॰)] वह छाजन जिसमें वेडे र के छोनो सिरे पाखो पर नहीं रहते, बल्कि दीवार के कनो से कुछ दूर पर रखी हुई धरन के ऊपर रहते हैं जहाँ से दीवार फे कोनो तक दो धरने (कोनसिले) तिरछी रखी जाती है। ऐसी छाजन के लिये पाखों की आवश्यकता नहीं होती। २ काठ व पदरी या पत्थर की पदिया जो दीवार के फोने पर चीजें रखने के लिये वैठाई जाती है । पटनी । ३ पानी के नन प्रादि में मोड़ पर लगाया जानेवाला लोहे का छोटा टुकड़ा जो कुहनी के प्रकार का होता है। कोनैदड-सी पुं० [हिं० कोना + दड] वह दड नामक कसरत जा पर के कोने में दोनों ओर की दीवार पर हाथ रयर की जाती हैं । कन्वशिर-सज्ञा पुं० [सं०] वह क्षत्रिय जो ब्राह्मण द्वारा शापित होने से शूद्रत्व को प्राप्त हुम हो (को॰] ।