पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५४३

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५ मः । कोप-सी पुं० [सं०] [वि० कुपित] १. क्रोध । रिस । गुम्सा । कोपिका--वि० ० [सं०] कॉप फरनेवाली । कोप 3०-- यौ०-पभवन । कोपभाजन । कृवरी इलाज सो अवाज को कोपिका ---मुजान० पृ० ४।। २.अायुर्वेद में शारीरिक त्रिदोप विकार (को०) । कोपित- वि० [सं०] क्रोध में लाया गया । ऋद्ध। (ये ।। कोपक-सा पुं० [सं०] वह लाभ, जो मग्रियों के उपदेश से पा राज- कोपिन -सुधा पुं० [हिं० कोपीन] दे॰ 'कौवीन'। उ०--विन द्रोही मश्यिो के अनादर से हुई है। वाँधे मूल दुवार, उलटे पवन उई झनकार !---गुला०, विशेप-बौटिल्य ने कहा है कि पहली अवस्या में मंत्री यह सम भने -गने हैं कि हम न हो त राज्य को बहुत हानि हो कोपिलाँसमृद्म पु० [हिं० कोइलाँस, दे० 'कोइन,' । जाती, अर दूसरी अवस्था मे ३५ मत्री यह समझतें हैं कि कोप –वि० [३० झोपीन्] १ कोप करनेवाला । धीं । २.एक | जहाँ हमले नाम न पहुचेगा, वहाँ हमारा नाश होगा । प्रकार का पक्षी जल के किनारे रहता है। ३.वी राग कोपड-सच्चा पुं० [देश॰] पटा। सरावें । हेगा। का एक भेद ।। । विशेप----३० 'हु' । कोपी-वि० [सं० कोऽपि] कोई । कोई भी । उ०—विमुन्द कोपन-सज्ञा पुं० [सं०] क्रुद्ध होना। क्रोध करना (को॰] । राम थाती नहि कोपी ।—तुलसी (शब्द॰) । कोपन-विः क्रोधी । उग्र स्वभाव का । २. दोष या विकार उत्पन्न कोपीन-सदा पुं० [हिं०] दे॰ 'कोपीन'। $7नेवाला ]ि । कोपनक-वि० [सं०] क्रोधी । क्रुद्धको०] । कोप्यापणयात्री-सच्चा नी० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार ऐसे कोपनक-सुज्ञा पुं० चोवी नामक गधद्रवप। | जाली सिक्को का चलना धिनका रोकना जरूरी हो । कोपना'५--छि ० अ० [सं० कोप+ हि० न० (प्रत्य॰)] क्रोध कोफ्र ---सच्ची पु० [फा० कोफत] १. रंज। दु। वेद । वरद्द । करना । क्रुद्ध होना । नाराज होना । १०----कोप्यो समर परेशानी । हैरानी श्रीराम तुलसी । (शब्द॰) । क्रि० प्र०—उठाना ।---गुजरना }----होना। कोपना-चक्की ली० [च०] क्रोधी स्वभाववाली स्त्री []} ३. लोहे आदि पर सोने चांदो को पच्चीकारी। कोपना--- वि० ० ओघ करनेवाली। क्रोधी स्वभाव की (स्त्री)। कोफ्तगर--संशा सी० [फा० कोतगरी] लोहे के बरत या कोपपद-सा पु० [सं०] कप का कारण ! झोध का कारण ये हथियारो पर चाँदी या सोने की पच्ची फारी करने की छाम । कोपभवन-सा पुं० [सं०] वह स्थान जह! ३ई मनुष्प क्रोध करके कोफ्ता-सया पुं० [फ़ा० कोप तह कुळे इए माँ अमवा ग्राले पादि या अपने घर के प्राणियो से रूठकर जा रहे । उ०-कोपभवन का बना हुअा एक प्रकार की कवाव जो जामुन के प्रकार का गवनी कैकेयी ।—तुलसी (शब्द॰) । होता है और जिसके अंदर अदरक पुदीना, असम, भुने चने कोपर'- सद्या पुं० [स० कपाल पीपल या अन्य किसी धातु का की प्राडा (दि भरा रहता है । उ०—कोफ्ना तो ऐसा बना बड़ा वाल जिसमें एक और उसे सरलता से उठाने के लिये कुडा कि क्या कहिए -प्रमघन॰, भा॰ २, पृ० ३५। २. वत् सगा रहता है । उ०--कनक कलस भरि कोपर धारा । भोजन कमाई जो अदृवैपन से प्राप्त हो (को०)। ललिव अनेक प्रकारा। --तुलसी (शब्द॰) । कवडी---सुया पुं० [देश॰] एका प्रकार का वृक्ष जो घरमा और कोपर-सा पुं० [हिं० कोंपल]डाल को पका हुमा अम । टपका।। नेपाल में अधिक से होता है। कॉवर--सा पुं० [सं० काष्ठगह या हिं० फोहग्र] १ निवास । सीकर । सुपि । कोठरी । कोठर । उ०काया कोदर मरि भरि लीन्हों ज्ञान कोपर --सा पुं० [सं० कूपर, प्रा० कोप्पर] [बी० कोपरी । । अवीर को ई-नाल०, पृ० १०५ । २.६० 'कोपर"। भुजा और हय के मध्य की वृधि । फुहुनी ३०---(क) पाँच कोचिद -वि० [सं० कोविद] [वि० औ• कोविए) ३५ कोपर चरावे ? चिव सौं वांछा राखीला |---दपिवनी० पृ० ‘कोविद ।। ३३ । (ख) दतकुनी अगुली, करी कोपरी कपाली। बीच खेत का विदार-सच्चा पै० [सं० काविर] ३० कोविदार'। वित्यो, फरो बिहरी किरमाली }---रा० रू०, पृ० २५१ । कोवी-सुवा • [३० गोभी] गोभी की फुल । कोपल-सी पुं० [सं० कोमल या कुपल्लव] वृक्ष आदि को नई कोम–•सभा पुं० [सं० मं, प्र० कुम्म दे० 'कर्म' । ३०----चत मुलायम प । कल । अकुर । । धाव वेग वाव घाव पाव चंचल । प्रही कृपाल नी धीर पीठ कोपलता--सा • [सं०] कनफोड़ा नाम को बैन । कोन मकु !-० ७, पृ० १७६।। कोपला.. वि० [हिं० कोपर ] कोपले ॐ रग का । अनि के नए कोंमत--सा पुं० [३०] कर की जाति कई ऐ वत्र, सु,उन। | निकले हुए पत्त के रंग छ । वैगनो । | मर चुदवार पेड़ जो सिध अौर अजमेर के रेवत इलाकों झोप –स दु० एक है जो गमि के तुरंत निकले हुए पत्ते के रन में पधिकता से होती है। इसमें कोई बहुत अधिक होते. अपत् फापन लिए लाल वैगन होता है मौर मुज्ञी; कमि--सी पु० द°] पत झा ३ काना । कोमर--स। पुं० [देश॰] देव झा २३ कोना जो किसी और १ौर नौ ३ मिलने से बनता है। अधिक ब} यि हो ।