पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५४२

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कौड़ी १०५८ कति कोडी-- सच्चा स्त्री० [हिं०] दे० 'कौड़ी' । उ०—(क) सु देर मनुपा देह विशेप-जिन दो रेखा से कोण बनता है उनकी लंबाई के यह पायो रतन अमोल । कोडी सटे न पोइये मffन हमारी घटने बढ़ने से कोल के मन में कुछ अंतर नहीं पड़ती । कोण बोल |–सुदर० ग्र०, भा० २, पृ० ६६६ । (ख) गुन को न का मान निकालने झा ठग यह है कि जिस बिंदु पर दोनो लेश ताको वडे गुनवान कहें, दानी कहत जाको कोडी करते हुरे रेखाएँ गिनती हैं उसे केंद्र मानकर दोनो रेखा को काश्ता नही ।-रघु० रू०, पृ० २८४ । । हुअा एक वृत्त वनावे । फिर उफी परिधि को ३६० अशा में कोडी**—सभी पुं० [दश० कुड्ड, कोडड] माश्चर्य । कुतूहल । कौतुक । विभक्त फरे। जितने अन्न कोण वनानेाली रेवाग्रो के बीच में ३०-सीगण कोइ न सिरजियाँ, प्रीतम हाथ करते । काठी पड़े गे, उतने अशो का बहू कोण कहा जायेगा। रेखागणित में । सहित मूठ मां, कोबी कासी सत ।---ढोल०, ६० ४१६ । कोण कई प्रकार के होते हैं, जे समकोण (६० म यो का) कोडी-सच्चा सी० [अ० स्कोर या स० कोटि] १ बीस का समूह । न्यूकोण (६० म श से कम का), इत्यादि । बीसी । २ तलाव का पक्का निकास जिससे तालाब भर जाने २. दो दिशाप्रो के बीच की दिशा । विदिशा । पर अधिक पानी निक जाता है। पूर्वका अना। कोडी–वि० बीस । विशेष---कोण चार हैं-अग्निकोण (पूर्व और दक्षिण के बीच कोढ़-सा पुं० [सं० कुष्ठ] [वि॰ सोढ़ी] एक प्रकार का रक्त और का कोण ), नैऋति (पश्मि और दक्षिण का), ईशान (पूर्व और उत्तर का) तया वायव्य (उत्तर और पश्मि का)। त्वचा सवधो रोए जो सक्रामक और पुरुपानुक्रमिक होता है । विशेष---वैद्य क के अनुसार कौढ १५ प्रकार का होता है जिनमें से | ३ सारेगी का मानी । ४, हथियारों की वाई । तलवार मादि का पाल, उदु बरे, महल, सिम, काकणक, पुडरी और की धार । ५. सोटा । इडी । लाठी। ६ ढोल पीटने ऋजिल्ल नामक सात प्रकार के कोढ़ महाकुष्ठ फहे और का चोव ।। असाध्य समझे जाते हैं, और एक कुष्ठ, गजचर्म, चमंदल, कोण- संज्ञा पुं० [यू फोनस १ नि ग्रह । २ मंगल ग्रह। विर्चाचा, विपादिफा, पामा, कच्छ, दद्र, विस्फोट, फिटिम कोणकुण-सा पुं० [सं०] मत्कुण 1 खटमल [३०] । और अलपक नामक शेप ग्यारह प्रकार के कोढ़ क्ष ३ कुष्ठ कहे कोणतर-सपा पुं० [सं०] दे० 'कोणशंक') अरि साध्य समझ जाते है । कोढ़ होने से पहले चैमा छाल ६ कोणq—सी १० [सं०] ३ 'क ', जाती है और उसमे बहुत जलन होती हैं । गलित कोढ़ से हाय कोणवादी---सा पु० [सं० कोचिदिन्श र । शिव (चे । पैर की उगलियाँ गल गलकर गिर जाती हैं । डाक्टरों के मत कोणवृत्तसज्ञा पुं० [सं०] वह देशातर वृत्त जो उत्तर पूर्व से दक्षिणसे यह सर्वा गव्यापी रोग है और अलीपद मादि भी इसी के । अ वर्गत हैं। इस रोग से पीड़ित मनुष्य घृणित और अस्पृश्य पश्चिम या उत्तरपश्चिम से दक्षिणपूर्व की ओर गया हो । समझा जाता है । कोणयकु--सज्ञा पुं० [सं० कोणा] सूर्य की वह स्थिति जव सि मुहा०—कोढ़ चूना या हेरफना = कोढ़ के कारण अगो को गल | वह न तो कोणवृत्त में हो और न उन्मवल में हो । गलकर गिरना । कोढ़ की खोज या कोढ़ में खाज दु ख पर फोस्पृवृत्त - सी पुं० [सं०] वह वृत्त जो किसी क्षेत्र के सर्वे कोनों ६ ख । विपत्ति पर विपत्ति । उ०—एक तो कराल कलिकाल | फो चुना हुआ खीचा जाय । सुलमूल तामे, कोढ़ में की खोजु सी समचरी है मौन को ।-- कोणाकोण-अव० [सं०] एक कोने से दूसरे कोने सके । तुलसी (शब्द०) । कोणाघात--सा पुं० [सं०] दस हजार ढोनो मौर एक हजार हुर्को कोढ़ा--संज्ञा पुं० [सं० योष्ठ, १० कोड] १. खेत में वह बड़ा या के एक साथ वजने का वद० । स्थान जहाँ स्वाद के लिये गोवर अदि सुग्रह करने के अभिप्राय कोणार्फ-सी पुं० [सं०] जगन्नाथपुरी का प्रसिद्ध तीर्य । यही से पशुओं को रखते हैं। f२ साँकल आदि लगाने या फँसाने | का सूर्य मदिंर बहुत प्रसिद्ध है। को लौह आदि निमित गोला । कोणि-वि० [सं०] जिसका हाथ टैंडा हो । वझहत्त [को॰] । कोढिन, कोढिलो वा खौ० [हिं० फोढ़ी] १ वह स्त्री जिसे कोढ़ कोत'- सजा श्री० [अ० कुवत बल । शक्ति । जोर। उ०—कहर, हुआ हो । ३ (लाक्ष०) माया । फौंल, जपादल, विद्रुम फा इतनी जो बदूक' में कोत है ।-- कोढ़िया---सज्ञा पुं० [हिं० फोड़] एक प्रकार का रोग जो तमाखू के शभु (शब्द॰) । पत्तो मे होता है और जिसके कारण उसपर चकत्ते या दाग कोत +-सच्चा स्त्री० [हिं०] दे० 'कोद' । पड़ जाते हैं । कोढिलाई-सच्चा १० दिश०] एक पौधा ।। कोतक-संज्ञा पुं० [सं० कौतुक] दे० 'कोतुरु'। उ० ज्याँरो कोतक कोढी-सहा पुं० [हिं० कोढ़] [स्त्री० कोढ़िन] कोळ रोग से पीड़ित । | देख जुध, हुवे मुनिद्रा हास --बकि० अ०, भा० १, पृ० ३ । मनुष्य । कोत कहार-वि० [सं० फौतुक+हि हार (प्रत्य॰)] कौतुझी । खेल कौढ़ी-वि० कुष्ठ रोग से ग्रस्त । रचनेवाला । तमाशा दिखानेवाला । उ०—माप विरजन हुये कोण'-- सच्चा पुं० [सं०] १ एस बिंदु पर मिलती या कटती हुई दो। रह्या कायमो फोत कहार । दादू निर्गुण गुण कहे जगा ऐसी रेखा के बीच का अतर, जो मिलकर एक न हो जाती दलिहार ।-राम० धर्म०, पृ० २५ । हो । कोना । गोगा । कोतर -सच्चा पुं० [सं० कोटर] दे० 'कोदर' । उ॰—जुबती जन