पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५४०

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कटिव कोटिकवर सुद्धा पुं० [सं०] ६० कोटीश' ।। कोटीस -वि० [सं० कोटीश] करोड़पति । कोट्यधीश । ० नयर मध्य कोटीस बसे बानि मनत लछि ।—पृ० रा०, २५ । १७३ । कोट-सज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ ‘कुटु' । कोटेशन-सच्चा पुं० [४०] लेख या वाक्य को उद्धृत ऋश । उद्धरण । २ सीसे का ढला हुआ चौकोर पोला टुकड़ा जो कंपोज करने मे, खाली स्थान भरने के काम में आता है । विशेष---यह क्वाईट से बड़ा होता है । इसकी चौड़ाई ४ एम पाइका और लवाई २, ४, ६ या ८ एम पाइका तुक होती है । कोट्ट-सच्चा पुं० [सं०] १ किला। दुर्ग । २. नगर ।—देशी०, पृ० ११• । कोदूवी--सच्चा पुं० [सं०] १ बाणासुर की माता । विशेष-जब श्रीकृष्ण और बाणासुर मे युद्ध हुआ था, तब वह अपने पुत्र की रक्षा के लिये नगी होकर युद्धक्षेत्र में उतरी थी । ३ नगी स्त्री जिसके बाल विखरे हों । ३ दु । कोदार---सझा पुं० [सं०] १ किला। दुर्ग । २ किलेबदीवाला नगर । ३ प । कूअ 1४ तालाब की सीढ़ी । ५ दुराचारी । | लंपट [को॰] । कोट्यधीश- सच्चा पुं० [सं०] करोड़पति । करोड़ी । बहुत वा घनी ।। कोठ-सधा पुं० [सं०] एक प्रकार का कोढ जो मंडलाकार होता है। कोठ+–वि० [सं० कुण्ठ] जिससे कोई वस्तु कु ची या चबाई न जा सके । कु ठित । विशेष--इस शब्द का प्रयोग दौती के लिये उस समय होता है, जब वे खट्टी वस्तु लगने के कारण कुछ देर के लिये वेकाम से हो जाते हैं । कोठ -सज्ञा पुं॰ [सं० फोटूट) कोट । किला । उ०-दहति कोस विस्तार कोठ मरवड्थ त्रिपु ची -पृ० १०, २६॥ ७५ ।। कोठ-संज्ञा पुं० [सं० अछोल] दे॰ 'अकोल' । उ०—सो उनके द्वारे एक कोठ को वृक्ष हुतो -दो० सौ बावन०, भा० १, पृ० ५१ । कोठडी+--सा औ० [हिं० कोठरी] दे॰ 'चोठरी' । कोठर-सच्चा पुं० [सं०] अकोल या पे । कोठरपुष्पी--सा वी० [सं०] बिधारा नामक वृक्ष । कोठरिया-सच्चा • [हिं० कोठरी+इयो] (प्रत्य॰)] दे॰ 'कोठरी'। कोठरी---संश्च स्त्री० [हिं० कोठा+डी (री) (अल्पा०) (प्रत्य॰)] {मकान मादि मे) वह छोटा स्थान जो चारों ओर दीवारों या दरवाजों आदि से घिरा और ऊपर से छाया हो । छोटा कमरा । वर्ग कोठा । महा--मधेरी कोठरी = दे० 'अ'धेरी, का यौगिक । अंधेरी कोठरी का यार = वि० दे० 'म घेरी"को मुहावरा । कालकोठरी * = दि० ३० सालकोठरी' । कौठली--संज्ञा औ• [हिं०] १० कोठरी' । उ० --सार की कोठली जै हालिया पूरा पच मुम सखारा मानद०, पु० २६ । कोठा—सा पुं० [सं० कोष्ठक] १ वड़ी कोठरी । चौडा कमरा । २ | कमरा । २ वह स्थान जहाँ बहुत सी चीजें यह करके रेस्त्री जय' । महर। यौ०--कोदार । कोठारी । ३, मकान में छत या पटिन के ऊपर का कमरा । अटारी । वडा मकान । व्यापारी, महाजने या संपन्न व्यक्ति का पक्का बढ़ा | मकान । यौ०-- कोठेवाली = बाजारू स्त्री । वेश्या । महा०—-कोठे पर चढ़ना=किसी ऐसे स्थान पर पहूचना जहाँ सब लोग देख सके । अधिक ज्ञात या प्रसिद्ध होना । जैसे,—(बात) अोठो निकली, काठो चढ़ी। कोर्ट पर बैठना= वेश्या बनाना। फसई झमाना । ४ उदर । पैट । पक्वाशय । मुहा०--कोठा दिगडना = अपच आदि रोग होना । कोठा साफ होना = साफ दस्त होने के बाद पेट का हलका हो जाना। ५. गर्भाशय । धरन । मुहा०-कोठा बिगड़ना=गभशिय में किसी प्रकार के रोग होना। ६. खाना । घर । जैसे,---शतर ज या चौपड़ के कोठ । मुहा०—कोठा खीचना= लकीरो से खाना बनाना । फोठा भरना = | हिदु में कार्तिक स्नान करनेवाली स्त्रियों का विशेष तिथियों को भूमि पर ३५ खाने खींचकर ब्राह्मण को दान देने के अभिप्राय से उनमे अन्न, वस्त्र आदि पदार्थ भरना । | ७ किसी एक अ क का पहाडी जो एक खाने में लिखा जाता है । जैसे,—आज उसने चार कोठे पहाड़ याद किए । ८ शरीर या मस्तिष्क का कोई भीतरी भाग, जिसमें कोई विशेष शक्ति रहती हो । महा०--कौठो में चित्त भरमना या जाना= अनेक प्रकार की अाशकाएँ होना । जैसे,-तुम्हारे चले जाने पर मुझे बहुत चिंता हुई, न जाने कितने होंठों में चित्त भरमा। किसी को भे चिरा जाना=किसी प्रकार की प्रवृत्ति या वासना होना । अर्धे कोठे == मूर्ख । वेवकूफ । विचारशून्य । कोठा न होना यी कोठा साफ होना = म त करण शुद्ध होना। हृदय में कोई बुरा विचार न रहना । कोठाकुचाल-सज्ञा पुं० [हिं० कोठा+कुचाल] हाथियों की वद् बीमारी जिसमें उनकी भूख मारी जाती है। कोठादार-सज्ञा पुं० [सं० कोठा +फ० दार] भारी । कोठारी ! भडार का अधिकारी। कोठार--सच्चा पुं० [स० कोष्ठागार) अन्न, धनादि रखने का स्थान । भंडार । उ०—-कोठार और रसोई घर की गृहस्थ को रोज अावश्यकता पड़ती है ।—रस०, पृ० १२ । । कोठारी- सच्चा पुं० [हिं० कोठार+ई (प्रत्य॰)] वह अधिशी जो भडार का प्रबंध करता और उसके लिये पदार्थ भाव का सुग्रह करता हो । भंडारी । उ०—करिदे और कठारी । खरीदे माल सब झारी -सत सुर सी०, पृ० ६६ । कोठिला- सुप्ता पुं० [६०] ३ 'कुठला' । कोठी'-सा • [वि० कोठा + (प्रत्य॰)] १. या पक्का मकान । को