पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५३५

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कोच कोकिनके । उ०—उमी ने कोको वृक्ष लगाना अरिभ किया -प्रा० भा० १९ वाँ भेद जिसने ५२ गुरु, ४६ लघु अर्थात् १०० वर्ण या प०, पृ० १३।२ कोको के फल का चूर्ण । ३. कोकों के वीज १५२ मात्रा होती हैं । ५ जलता हु। अंगारा । के चूर्ण से बनाया हुआ पेय ।। कोकिलक—सुझको पु० [सं०] एक प्रकार का छंद (को०)। कोकिला-सा स्त्री० [३०] १ कोयल । पिक २ आग का अंगारा। कोकोजम, कोकोजेम-सच्चा पुं० [अ० कोको नारियल] साफ करके जमाया हुम्रा, निर्गध गरी का तेल जिसका व्यवहार घी के उ०—च कई निसि विछर, दिन मिना । हौं दिन रात विरह स्थान पर होता है। कोकि }-- जायसी ग्र०, पृ० १५४ । कोख-सज्ञा पु० [सं० कुक्षि, प्रा० कुविख] १. उदर । जठर। पेट । कोकिलाक्ष-संज्ञा पुं० [सं०] तालमखाना । २. पसलियों के नीचे, पेट के दोनो वगल का स्थान ! कोकिलाप्रिय-संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक ताल जिसमें एक प्लुत मुहा०—कोखे लगना या सटना=पेठ खाली रहने या बहुत | (प्लुत की तीन मात्राए), एक लघु (लघु की एक मात्रा) मौर | अधिक भूख लगने के कारण पेट अंदर घैसे जाना। तव फिर एक प्लुत होता है। इसे लोग परमलु भी कहते हैं। ३. गर्भाशय ! इसके मृदम् कै वोल ये हैं-धीकृत धीकृत धिधिकिट 5 तक विशेष—इम अर्थ के सब मुहावरो और यौगिक शब्दों का प्रयोग थीं । तुकडिग डिधिगिन प थो' 5।। केवल स्त्रियों के लिये होता है। कोकिला -सा पुं० [चं०] ताल के साठ मुल्य भेदों में से एक । यो०-कोखबद । कोख जली। झोकिलावास-सा पु० [सं०] अम का वृक्ष । रसालत को०] । मुहा० - कोख उजड़ना=(१) संतान मर जाना । बालक मर कोकिलासन--सच्चा पुं० [सं०] तत्र के अनुसार एक अासन ! जाना । (२) गर्भ गिर जाना । कोख बंद होना =वघ्या कोकिलेप्टा-माधवा स्त्री० [सं०] वड़ा जामुन । फरेंदा ! होना । संतति उदान्न करने के अयोग्य होना । कोख यो कोख कोकिलोत्सव-सम्रा पुं० [सं०] अाम का पेड । सहकार वृक्ष किJिI माँ से ठडी या भरी पूरी रहना= बालक या, वालके और कोका-सबी बी० [सं०] चकवी। चक्रवाकी । उ०—छिनु छिनु प्रभु पति का सुख देखते रहना-( प्रासीस ) । कोख मारी पद कमल विलौकी । रहिह मूदित दिवस जिमि कोकी । जाना= दे० 'कोख वद होना' । कोख की बीमारी यः रोग= मनस, २१६६ ।। सतति न होने या होकर मर जाने का रोग। कोख की कोकीन-सा स्त्री० [अ० कोकेन) दे० 'कोकेन । अच= संतान का वियोग । संतान का कष्ट । जैसे---सब दुःख कोकुमासमा पुं० [सं० कोका] समष्ठिल नाम का पौधा । सही जाता है, पर कोख की अाँच नही सही जाती । कोख पयो०--मद्याग्र । अम्रगेधक । कोकास्न 1 कटकफल । उपदेयं । खलना= बाँझपन दूर होना । उ॰—पर मिला पुढे जो संपूर्त कोकेन--सा स्त्री० [अ०] कोसा नामक वृक्ष की पत्तियों नहीं । क्या खुनी कोख जो न भाग खुला !-—चोखे०, पृ० ३६ ! हुई एक प्रकार की औपघ, जो गधहीने और सफेद रंग की कोखजुली-वि॰ स्त्री० [हिं० कोख +जलना] जिसकी सतति होकर | मर जाती हो । जिसके बालकको मर जाते हो। वधप-यह दवा को भीति, मरहम में मिलाने और अखि अादि कोखवंद-वि० [हिं० कोख +बद] जिसे सतति न होती हो । बध्या। कोमल अगों पर अस्त्र चिकित्सा करने से पहले उन स्यानो को वाँझ। सुन्न करने के काम में आती है। कुछ दिनों पूर्व भारत में । कोंखाई--सच्चा पुं० [हिं०] दे० 'कोख' । उ०५-बालक जन्मा मोरे इसका प्रयोग मादक द्रव्यों की भाँति होने लगा था और लोग कोखा । जन्म भरे की भागी धोखा ---४ीर सा०, पृ० ५३८ । इचे पान के साथ खाते थे, पर अव इसका प्रयोग केवल शाक्टर कोगी-सुज्ञा पुं० [ देश० ] लोमड़ी से मिलता जुलता एका ही कर सकते हैं। कानुन दारा साधारण लोगों में इसकी। जानवर। विक्री बंद हैं। विशेष--यहूं झुड में रहता और फस्न को बहुत हानि पहुचाती यो०--कनची= मादक द्रव्य की भति कोकेन फी उपयोग है। कहते हैं इनका झु डे मिलकर शेर पर टूढे पड़ता है। करनेवाला । कोकेन का नशा खानेवाला । और उसके शरीर का सारा मांस खा जाता है । जिस जगल -सबा औ० [अनु॰] कौ । लड़को को बहुकने का चम्द । में कोगी का झड़ जाता है, उसमे से शेर डरमय निकाल ३०-मैं तो सोये रही सुख नींद, पिया को कोको ने गई रे । जाते हैं । । कोच-सच्ची पुं० [अ०] १ एन्न प्रकार की चौपहिया वत्रिया घो (त) । विशेप- जब किसी वस्तु से बच्चों के सामने से हटाना होता यौ०-कोचवकले । कोचधान । | हैं, तब उसे इथि में लेकर कही छिपा देते हैं और उनके बह २. गइदा वढ़िया पलंग, वेंच या अरिमिकुरसी । झाने के लिये कहते है कि क्रोप्रा ले गया 1 'कोको ले गई। * कोच---प्रज्ञा पुं० [हिं० कीचनी वढू लव छ जिमको संवदंती 3 पुं० [सं० कोको १, विपर्वत रेखा के अासपास के मई मे से ढले हुए बरतन निकाले जाते हैं । दशा में होने वाला एक पै। जो ड़ि वृक्ष के अकार का कोच-सा पं० [?] टूटे हुए जहाज का टुकड़ा -(लश०) । होता है। होती है।