पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५३४

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छौंछो १०१० कोइक कोछी- समा जी० [हिं० काछा] साहो या घोती का वह भाग बिसे को वरि७, को वरी -वि० सी० [सं० फोमल] मुनयिम । नाजुक । चुनकर स्त्रियाँ पेट के आगे खोसती हैं । फुवती । तिन्नी । कोमल । उ०—(क) ग्रेहु चाहि धनि कोंवरि मई -- नींदी। जायसी ग्र० (गुप्त) पृ० ३३६ । (ख) एक तो ताती सुठि कोई-सच्चा पुं० [देश॰] एक केटीला झाड या पैड़ । कोथरी ।—जायसी ग्न ०,१० १२४।। विशेष—यह झाड देहरादून, कुमाऊ, बगाल मौर दक्षिण भारत को वल –वि० [हिं०] दे० 'कोमल' । उ०—कोवल कुटिल केस :- में होता है । इसकी पत्तियाँ ३-४ अगुल लवी होती हैं । इसमें नग फारे ।—जायसी ग्र ० (गुप्त), पृ० १८५।। बहुत छोटे फूल छोटे छोटे गुच्छो मे लगते हैं। पत्तियाँ चारे के को वलि(+---वि० सी० [हिं०] दे॰ 'कोमल' । उ०—सुमा सो नाक काम में आती हैं, फल खाए जाते हैं तथा जड़ और छाल की कठोर पंवारी । वह झवलि तिल पुहुप सँवारी --जायसी दवा बनती है । | ग्र० (गुप्त) • पृ० १८९ ।। कोड़रा सच्चा सौ॰ [सं० कुण्डल] लोहे का वह कडी जो मोट के को स--- संा पुं० [सं० कोश] लवी फली ! छीमी । | मुह पर लगी रहता है। गोडरा ।। को हुडा--संज्ञा पुं० [सं०फूष्माण्ड, प्र० को ४० 'कुछड़ा। को डरी-सच्चा बी० [सं० कुण्डली] हुडक वाजे को वह लकड़ी जिसपर कोहड़ौरी- सच्चा बी० [हिं० कोहडा+वरो] कुम्हवे या पेठे की चमडा मढ़ा रहता है ।। | वनाई हुई वरी । कों डहा-वि० [हिं० फोड़ा] दे॰ 'कोढ़ा' ।। को हरा- सच्चा पुं० [देश॰] [को हरी] उबले हुए खडे चने या को ही सच्ची स्त्री० [हिं०] दे० 'कोड' । उ०—रैयत जगत सब्द के मटर जिनको तेल में छौंककर और नमक मिचं लगाकर खाते | कोडी, दूजी मार न मारी -यरची०, पृ० ३ । हैं । घुघनी । को ढ़ा-सा पुं० [सं० कुण्डल] धातु का वह छल्ना या वाडा जिसमे में कोहराना–सच्चा पुं० [हिं० कर] वह वस्ती जहाँ कोदार रहते हैं। । जजीर या और कोई वस्तु अटकाई जाती है । को हाना-क्रि० अ० [हिं०] दे० 'कोहाना' ।। को ढा.वि० [हिं० फोढ़ा+हा (प्रत्य॰)] (रुपया) जिसमें कोढा | = को हार–सच्चा पुं० [से० कुम्भकार, प्रा० कुम्भार] दे॰ 'कुम्हार' । | लगा हो या जिसमें कोढ़ा लगे रहने का चिह्न हो । । उ०--तुरी यौ नाव वाहिन रथ हाँका ! वाए फिर कोहार क विशेष—इस देश में रुपयो मे छेद करके उनकी माला पिरोकर चाका ---जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० ३६८।। स्त्रियों और बच्चो को पहनाते हैं। ऐसे रुपयो को माला में से | को -सव [सं० क ]१ कौन । उ०——तु को, कौन देस है तेरो । निकालय बाजार में चलाने से पठले उनके छेद चाँबी से बंद के छल गह्यो राज सद मेरो !-सुर०, १।२६० । २. कर देते हैं । इस भ ार के रुपयों को फोढ़ा या कोड़ा कोई । उ०—पैदा जाको हुआ है वो सब उनो किया है । कहते हैं । --दक्खिनी० पृ० २१२ । ३ क्या । उ० -इतर धातु पाह- को ढी–सच्चा, झी० [हिं० बढ़ा' फा अल्पा०] दे० 'कोढ़ा' । नह परसि कंचन ह्वः सोहैं। नंदसुवन को परम प्रेम इह को ढी- सम्रा बी० [स० कोऽ5] मुहवंधो कली। अनखिली कली । अचरज को है ।-नेद० ग्रं, पु० ८।। कोथ-सा पुं० [देश॰] कुमारों की परिभाषा मे बरतन मावि का को२-(प्रत्य०) । हि०] कर्म और संप्रदान का विभक्ति प्रत्यय । | वह पूर्वरूप जो मिट्टी को चाकर रखने के बाद बनता है। जैसे-साँप को मारो । राम को दो। ३०---और विद्या की कोथना-क्रि० अ० [सं० फुन्यन] दे॰ 'कू खना' या 'कथना' । अभ्यास विशेप हुतो -अकवरी० १० ३८ । कोप –सम्रा पुं० [हिं०] ३' 'कोयल' । उ०—उठे कोप जनु दाखि कोअा–सच्चा पुं० [सं० कोश या f० कोसा] १.रेशम के कोडे का घर | दक्षिा । 'मई प्रोनत प्रेम की सखा --जापसी नं ० गुप्त), कुसियारी । २ टसर नामक रेशम का कीड।। ३ महुए को पका फल । कोल दा ! गोलंदा ४ कटहल के पके हुए बोज- को पना-क्रि० अ० [हिं० पोपल या फॉप +ना (प्रत्य०} } झोंपल कोश । ५ पुने हुए ऊन की पोनी, जिसे फावकर ऊन का तागा | निकलना या लगना । कोपर-सबा f० [हिं॰ कोयन] छोटा अधपका पर डाल का पका निकालते हैं । (गडरिया) । ६ दे० 'कोया' ।। | हुश्री ओम ।। कोअर--सा पुं॰ [देश॰] को नाम का वृक्ष । को पल-सा स० [सं० कोमा यी फु+ (अल्प), छोटा+पल्लव] वृक्ष । कोइँदा-सज्ञा पुं॰ [देश॰] दे॰ 'कोइना' । अादि व छोटी, नई 'पौर मुलायम पत्तौ । अकुर । कल्ला । कोइदी-सच्चा पी० [छोइँवा] महुए का वीज । कनखा । कोइ)--सवं० [हिं० कोई] दे॰ 'कोई उ०—लोग कहहिं यह को वर+--वि० [सं० मल्ल] नरम । मुलायम । नाजुक । ३०- होइ न जोगी। राजकुवेर कोई है वियोगी ।—जायसी (क) कोंदरे पनि रची मेहदो हफे नीके बजाय हर वियर अ ० (गुप्त), पृ० २६४।। री --सु दरोसर्वस्व (शब्द॰) (ख) माखन सी जीभ मुख कोइक---सर्व० [सं० कति+एक या फियत+एक हि० कोई एक] कज सो फोवर फह काठ सी कठेठी बात कैसे निकृति हैं । दे० 'कोई' । उ०—(क) कोइफ दिन नुर राम पै पढौ केशव अं०, मा० १, पृ० ७२ । सुविद्या अप्प। चबदसु विद्या चतुर बर लई 'सीष पर