पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५२७

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टीन कैकेयी विशेप-छान में कई की एक सीधी धरन के स्थान पर दो विशेष----इस शब्द के साथ प्रश्न में 'घ', 'ध' प्राय. अाता है । | उठी हुई लकडियाँ लगाते हैं, जो सिरो के पात्र एक दूसरी पर जैसे,—(क) कंधों व्योमवीथिका भरे हैं भूरि घूमकेतु कैव . प्राडो ध्र दी जाती हैं । रस वीर तरवारि सी उघारी है !-—तुलमी ग्र १, पृ० १७० । यो०-कधी का जंगला= वह बँगला जिसमें पतली पतली (ब) कंधो अनंग सिंगार को रंग लिस्यो नर मप्र वसीकर पी ती नियों एक दूसरों पर निरछी लगी हो । को - दिनेश (शब्द॰) । महा.-के ची लगाना = दो या अधिक लकड़ियो को के ची की कै.-सी पु० [देश॰] एक प्रकार का मोटा जड़हन धान ! तुरई एक दूसरों के ऊपर तिरछा रखना या बधिन।।

  • ४*राय, [ ka g a # 1 मववाचक का. झी के ने 7

३ सहारे के लिये घरन के बढ़ए में लगी हुई दो तिरछी लकडियाँ । प्रयुक्त वि भक्ति । उ०—(क) रामसथा के मिति जग नाही - ४. कुश्ती का एक पेच, सिमे प्रतिपक्षी की दोनों टाँगो मे मानस, १३३ । (छ) धोबी के मो कूकर न पर को न घाट अपनी टाँगे फेसासर उसे गिर रहे हैं। को । तुलसी ग्रं॰, पृ० ११२ । क्रि० प्र०-बाँदन।। विशेपकरण कारकै के रूप में भी इसका प्रयोग होता है, ५. मालवभ की एक कसरत जिसमें खिलाड़ी दौड़ता हुअा या जैसे,—कह जड़ जनफ धनुप के तोरा ।—मानस, १ । २७० । उहकर सीधे विना मानवंम को हाथ लगाए, कमरपेटे को क -सझा बी० [अ० कै ] वमन । छोट । उ नटी । रीति में मालखंभ को दवा हैं । क्रि० प्र०—ाना |--- करना --होना । क्रि० प्र०—बाँधना । केइक-~-वि० [सं० कति+एक] कई एक । अनेक । उ०—कैइक केटीन-सा सौं० [अं॰] जलानगई । ऐसे जलपान गृह छात्रावास, | रहे वहीं अरगाने । अक्रूरादिक अनसनमाने ।--नंद० प्र०, सैनिक छावनियो अदि में होते हैं, जहाँ उस विभाग के लोगों पृ० २२४ । । के लिये चाय, विस्कुट जलपान आदि की व्यवस्था रहती है। उG+ कैउक --वि० [सं० कति +एक ] ३० कैऊ' । उ०- कैल--सा पुं० [हिं० कै वा देश॰] एक प्रकार का पक्षो । (क) केउ वरस में काटि के, मच्चि पारयो अमिाथ ।---पोद्दार बनवीतर । अभि० अ ०, पृ० ४९४ । (ख) मन कौन सौ जाये अटक्यौ रे। केंडा-सा पुं० [ १० काण्ड - एक प्रकार की वर्गमा ] १ वह ऐसे वघ्या छोट्यौ न छूटै कैउके वरिय भटक्यौ रे -सु दर० यत्र जिससे किसी चीज की नकशा ठीक किया जाता है । डोल में ०, भा॰ २, पृ० ६२४।। इलने का अजार । २. किसी वस्तु का विस्तार अदि नापने 50-वि० [सं० कति+एक कई एक। अनेक । उ०—एम कॅऊ का अँहुई। पैमाना 1 मान । जुद्ध जीते सिंह सुजान ने । तब मलार ह्व सुद्ध, कुरम सो एक मुहा०—कैडर करना=(१) सरसरी तौर से नापना । अदाज कियौ ।--सुजान०, पृ० ३५। करना । (२) दौल लिन । केही लेना = चिट्ठा लैन । कैक--वि० [सं० कति+एक ] कितने ही । कई एक । उ०—कक साका नाना । बचन कहे नर्म केक रसुवर कमाने पर । एक कहे तिय धर्म ३ चलि । ढंग 1 तुजं । काटछाँट । जैसे,—वह न जाने किस की का अादमी हैं। ४ चालवृाजी । चतुराई ।। परम भेदक सुदर दर ।-नेद० प्र०, १० २७ । कता--सी पुं० [हिं० केत= किनारा ] पत्थर की बहू पट्टी जो वह पी लो क* के कई@---सच्चा भी० [सं० कैकेयी] दे० 'कैकेयी' । उ०-कैकई सुश्रन दीवार मे फरकी के दोनो तरफ चौड़ाई के वन उसे रोकने के जोगु उगु जोई। चतुर विरचि दोन्ह मोहि सोई - लिये ग्राडी लगाई जाती है । मानस, २॥१८१ । कप-सुवा पुं० [अ०] इकिमों या सेना के ठहरने का स्थान । पड़ाव। a। केकट---संज्ञा पुं॰ [ १० फीट ] देशविशेष । कीकट । उ० ---उतपन क कैकट देश कलि असुर जग्य जय हारि । जय जय युद्ध सरूप लश्कर । छावनी । कंपू । बा-सा पुं० [हिं०] दे॰ 'कैमा'। सृजि है सुर सिद्धि सुधार 1-पृ० रा०, २०५६५ } कैकय-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश । दे० 'कैकेय'। कवच-संज्ञा पुं॰ [ सै० फपिकच्छ, प्रा० क्रइ कच्छ, कवियच्छु ] ३० । कैकयी--सा मी० [सं०] केकय जनपद की स्त्री (को०] । 'केवॉच' । उ०—वैरी कटक नाग द्विप बीछ कैच दाघ । यासे कैकस--सच्चा पुं० [सं०] राक्षस । दूरे रहतेड़, दूर रहे दुख दाघ ।-बाँकी० ॥ ०, भा० १, कैकसी-सुशा लो० [सं०] सुमाली राक्षस की कन्या और रावण की पृ॰ ६४ । " -वि० [सं० मत प्रा6 कर 1 कितना 1 किस कदर । जे –के माता | मादमी अाए हैं । कैकेय---सा पुं० [सं०] [ी कैकेयी] १. केय गोत्र का पुरुष । ५-प्रपं० [सं० किम्] या । वा । अयवा । या तो । उ०—- २ केकय देश का राजा । अन्म सिरतो ऐसे ऐसे 1 के घर घर मरमत जपति विन, के न क्षिन * कक कैकेयी-सधा औ० [सं०] १. संकय गोत्र में उत्पन्न स्त्री । २ राज सोबत के जैसे । के कई खान पान रसनादिक, के के बाद दशरथ की वह रा जो भरत सी माता थी और जिसने मारो |-सुर ( ३ )। मथ के बहाने से मचंद्र को वनवास विवाद था।