पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५२६

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केवाई १०१२ केशवेष्ट केवाईसच्चा स्त्री० [हिं० के वा] कुई । केशच्छिद--सच्चा पुं० [सं०] नापित 1 हज्जाम (को॰] । केवाँच, केंवाँछt-- सच्चा स्वी० [हिं॰] दे॰ 'कॉच' । उ०-सेज केवाछ केशट- सवा पुं० [सं०] १ खटमले । २ विष्णु । ३ छाया । ४. जाजु कोइ लावा —जायसी ग्र ० (गुप्त), पृ० २३३ ।। कामदेव के पाँच वाणों में से शोपण नामक वाण । ५.प्रमोनोस केवाण -सच्चा पु० [सं० कृपाण] तलवार । उ०—इद्र भण वृक्ष। टॅटू ७ भाई । सहोदर (को०) । ६ ढोल । ज (को०)। मुनेश रौ, ग्रह के वाण त्रस्त । असमान छिव अखियो, भाई केशपाया केयपर्णी-सुज्ञा जी० [सं०] अपामार्ग । चिचडी। भाण सरस्स ।–० रू०, पृ० ७५ । केशपाश-सज्ञा पुं॰ [सं०] वालों को लुट । काकुन । केवा'---सज्ञा पुं० [सं० फुव = कमल] कमल कली । उ०—(क) तोहि । केशप्रसाधनो----सज्ञा ची० [सं०] कवी [को०] । अनि कीन्ह अाप भा के वी । ही पढ्वा गुरु बीच परेवा ।- केशव--सज्ञा पुं० [सं० के शवन्ध] नृत्य का एक हस्तक जिसमें हा जायसी (शब्द॰) । (ख) स्वर्ग सुर भुई सरवर फेवा । बनख को कद्दे पर से घुमाते हुए कमर पर लाते हैं और फिर ऊपर भवर होय रास नवा - जायसी (शब्द॰) । सिर की ओर ले जाते हैं । केवा–सच्चा पुं० [सं० किवा] बहाना । मिस अानाकानी । सकोच । केशमथनी--सझा जौ० [सं०] शमी का पेड़, जिसके काटी में वाल उरघुराज कौन विसच नहि होने पैहै, खासे खासे खुसी उनझ जाते हैं। खेल खूब खेलवहाँ मैं । केवा जन फीज मीरि सेवा सब भाँति केशमार्जक, केशमार्जन-सच्चा पुं० [सं०] केशप्रसाधन । ककही। कधी जीज, मीठ मीठ मेवा ले फलेवो करवंहो मैं ।—रघुराज [को॰] । (शब्द०) । कॅशरंजन--सया पुं० [सं० फेशरञ्जन] भूग राजु । मैं गरेयः ।। केवाइf-सञ्ज्ञा पुं० [सं० कपाट] दे॰ 'किवाड' । केशर--सञ्ज्ञा पुं० [सं० केसरी] दे॰'केसर'। केवाडा--सज्ञा पुं० [सं० पटक दे० 'किवाड' । केशराज-सज्ञा पुं० [सं०] १ एक प्रकार की भुजगा पक्षी । २. केवार–क्रि० वि० [सं० कति + वार] कई वार 1 अनेक वार । उ० | भंगरैया। भू गराज ! कई बार साहि वईयो पनि । दीनो के वार जिहि जोव दान। केशराम्ल--सज्ञा पुं० [सं०] १ अनार । दाडिम। २ विजौरा नीबू ।। | - पृ० रा०, २४ ३१२ । केशी--सच्चा पुं० [सं० केसरी] दे० 'केसरी' । केवारसा पुं० [हिं०] दे॰ 'किवाड़' । केशरूपा--सच्चा स्त्री॰ [सं०] पेड़ पर का बाँदा । केवार--सच्चा पुं० [सं० कपाट] दे० 'किवाड' । उ०--पौरि पौरि केशलु चक'--संज्ञा पुं० [सं० फेशलुचक] सिर के बाल नोचनेवाला, गढ़ बाग के वारा । औं राजा - भई पुकारा --जायसी जैन यति ।। ग्र ०, पृ० ६४ ।। केशव--सच्चा पुं० [सं०] १ विष्ण, का एक नाम २ कृष्णचंद्र का केविका-सच्चा स्वी० [सं०] एक फूल का नाम जो कोक प्रदेश में एक नाम । राधारमण । गोपीनाथ ३ ब्रह्मा । परमेश्वर । | होता है । सद्गधा । विशेष—इस अर्थ का विवरण महाभारत में इस प्रकार वर्णित केवी -सुझ पुं० [सं० के + अपि = फेऽपि (अन्येऽपि) ] शत्रु ।। हैं—अशवो ये प्रकाशते मम केशक्षित। सर्वज्ञा केशव दुश्मन । उ०---(क) कॉकणि कह काम, काल कह कैवी --- | तस्मात् प्राहम द्विजसत्तमा |--महाभारत । वेलि०, ६०, ७६ । (ख) दूरलियो ौ चौतरफ धवी वपण ४ विष्णु के चौवीस मुतिभेदों में से एक । ५. पु नाग वृक्ष'। ६. कहत 1-बोकी० ग्र ५ भा०, १, पृ० ३४।। मार्गशीर्ष का महीना। अगहन (को०) । ७. हिदी के एक कवि केश—सा पुं० [सं०] १ सिर का घाल। जिनकी निखी रामचत्रिका है। | यौ०- केशविन्याश = वाले सँवारना । केशाकेशी = वह लड़ाई केशव-वि० सुदर वालोवाला । प्रयास्त केशवाला (ये । । जिसमें दो दिमी ए। दूसरे के बाल पकड़ कर खीचे । । केशवपन—सपा पुं० [सं०] बाल वनवाना या कुटाना [वै] । २ रश्मि । किरण २ ब्रह्मा की शक्ति का एक भेव । ४.वरुण । केशवपनीय - सवा पुं० [सं०] एक प्रकार का प्रतिरात्र यज्ञ जो दो ५ शिव । ६ विष्णु 19 सूर्य । पशु बधे यागो के अनत्र किया जाता है । इस यज्ञ के अ त में ८.शेर या दो हैं के गले पर बाल । ६ केशी नामक दैत्य । ज्येष्टा पौर्णमासी सुत्य सोमयाग करना पड़ता है। १० एक अधद्रव्ये (को०) । केशवविनी--- सच्चा स्त्री० [सं०] सहदेवी नाम की वूट । सहदेइयो। केशक----वि० [सं०] केशरचना मे दक्ष[को०)।.. केशवायुघ–सज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का अयुध । २ अमि। केशकर्म–सी पुं० [सं० के शर्मन्) १ बाल झाइने भौर नू थने की । केशवालय-सज्ञा पुं० [सं०] वासुदेव वृक्ष । पीपल' । । कला। के ग्रविन्यास 1 ३ केशति नामक संस्कार ।। केशवावास-सच्ची पुं० [सं०] पीपल का वृक्ष [को०] । केशकार--सच्ची पुं० [सं०] एक प्रकार का गन्ना [को॰] । केशविन्यास--सा पु० [सं०] दालो की सजावट। बालों को केशकीट---सझा पुं० [सं०] जू। सँवारना।' केशगर्भ-सा पुं० [सं०] १ वेणी। कृवरी २ वरुणदेव [को०)। केशवेश-सम्रा पुं० [सं०] वेणी । कुवरीवध को॰] । केशघ्न-सेवा पें० [सं०] सिर के बाल उड़ना। गजापन (ो । केशवेष्ट्र-सच्चा पुं० [सं०] सीमत । मग क्वेश् ।