पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५२३

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केवली केलिमुख विशेष—इसके फूल और पत्तियाँ कैतुझी से बड़ी होती हैं। केत झी केलि मुख-ऋछी पुं० [सं०] हास परिहास । हँसी । मजाक क्रिो०] । की पत्तियों की भांति इसकी पत्तियां भी चटाइयों आदि केलिवृक्ष-सा पु० [सं०] कदंब वृक्ष की एक प्रकार [को०] । बनाने के काम पाती हैं और इसके फूल से भी अतर प्रौर केचिशुचि-सुशे औ० [सं०] पृथिवी। धरती [को०] । सुगंधित जल वनता तथा कृत्या वसाया जाता है। इसमें भी के -साम • [१० कदली, प्रा०कयली] केले की एक जाति केतकी के प्रयि सब गुग्ण हैं । इमके सिवा वैद्यक में इसके जिसके फन छोटे होते हैं। वि० दे० 'कला' ! केसर को गरम कंडनाशक माना है और इसके फल को केनी-सा लौ० सि०] खेल | क्रीडा । ३ कामकेसि |ळे] ! वात, प्रमेह मौर कफ का नाशक कहा है। यौ----केतीपिक= मनोविनोदन के लिये रखी कोयल। केली- विशेप–३० केतकी' ।। वनी-प्रमोदवाटिका । केलीजुक= मनोरञ्जनार्थ पीला गया २ इस पौधे की फूल ३ इसके फूल से उतारा हुण सुगंधित | सुगा । जल या असिव । ४. एक पेड़ जो हरद्वार के जंगलों मौर केलाद-संवा पुं० [देश॰] दे॰ केल। वरमा में होता है । केलो-सा पुं० [देश॰] दे॰ 'केल'। विशेष—यह गरमी के दिन में फुलती है। इसकी लकड़ी सागवन केब-सा पुं० दिश०] एक प्रकार का वृक्ष। मादि की तरह मजबूत होती है। जिसके तख्ती से मेज, विशेष—यह सिंघ की पहाड़ियों में और पश्चिमी हिमालय में कुरसी सदुङ अादि देनाए जाने हैं। होता है। इसकी लकडी भूरे रंग की और भारी होती है तथा केवर--सूज्ञा पुं० [हिं० कवडा ३० 'केवडा' उ०—वह फुल्नि सजावट के सामान और खिलौने आदि बनाने के काम आती | केशर फुनि । वग वैठि पावस भूमि |–१० रा० १४११३८ । है। इसके फल खाए जाते हैं और वी से तेल निकलता है। केवरा-सा पुं० [हिं॰] दे॰ केवडा' । उ०—कह रहे केवरा ही इसके पौधे पर विलायती जैतून की कलमे लग जाती है। | ज य |-हु० रासी, पृ० ६३ । । केवा- सूझा पुं० [सं० कवक= ग्रास] वह मशाल जो प्रसूता केवुलु'- वि० [सं०] १. एकमात्र । अकेला ! २ शुद्ध ! पवित्र स्त्रियों को दिया जाता है। ३ अमिश्रित । उत्कृष्ट । उत्तम श्रेष्ठ। ४.पूर्ग । समस्तु । पूरा (३०) । ५ नग्ने । अनावृत (भूमि) (को०)।। केवी-सच्चा औ• [हिं०] दे॰ 'केवटी' ।। केट-काशा पुं० [सं० कवर्स, प्रा०के वट्ट] मृतियों के अनुसार कैवर्त केवल-क्रि० वि सिर्फ । उ० केवल हे मा को हुकारी की झांई पर्वत के कंदरों में वोलती है । —श्यामा०, पृ० ७९ । क्षत्रिय पिता और वेश्या माता से उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति यी। इस जाति के लोग आजकल नाव चलाने तथा भिट्ट्टी केवलु-सा पुं० [वि० के वली] १ वह ज्ञान जो भ्रातिशून्य और विशुद्ध हो । खोदने का काम करते हैं । उ०--तव केवट ऊंचे चढ़ि जाई । विशेष—सालय के अनुसार इस प्रकार का ज्ञान तत्वाभ्यास से हेड मरते सन मूजा उठाई ।—तुलसी (शब्द॰) । उ०—- प्राप्त होता है । यह ज्ञान मोक्ष का साधक होता है। इससे यो०-केवटपास= केवट को पालनेवाले श्रीराम। ज्ञानी को यह साक्षात हो जाता है कि न मैं कर्ता है, न मेरा तुलसी जाके होयगी अंतर बाहिर दाठि । सो कि कृपालुहि किसी से कुछ संबंध है मौर ने मैं स्वयं पृय के कुछ है। इस प्रकार देइगो केवटपालहि पौठि ? ।—तुलसी ग्र०, पृ० ६० । के ज्ञान से वह पुरुष को साक्षी मात्र के रूप में देखता है। केवटी-संश्च ० दिश०} एक प्रकार का बहुत छोटा कीड़ा ।। २ जैन शास्त्रानुसार सम्क् ज्ञान । ३. वास्तु विद्या में स्तंभ के केवटीदाल-सा जी० [हिं० केवट= एक संकर जाति+वाल दो। आधार अर्थात् कु' भी के ऊपर का ठीची। या अधिक प्रकार क, ए में मिली हुई दाल । केवल्व्यतिरेकी-रांझा पुं० [सं० के वलव्यतिरे किन] न्याय के अनुसार केंवटोमोया अज्ञा पुं० [सं० केवमु मुस्तक] एक प्रकार का सुगधित । एक प्रकार का हेतु जिसका विलोम केवलान्वयी होती है। जिसकी सहायता अनुम न में ली जाती है और जिसे 'शेपवत् मोथा जो मालवा में होता है । भी कहते हैं । वि० दे० 'अनुमान' । ' विशेष—इसकी जड बहुत सुगंधित होती है और पधि के काम केवलात्मा-सा पुं० [सं० केवलात्मन] १ पप और पुण्य से रहित- कबलात्मासमा ३ में आती है। वैद्यक में इसे गरम और कफ और वात का ईश्वर। २ शुद्ध स्वभाववाला मनुष्य ।। नाश करनेवाला तथा दाह, शूल, व्रण और रक्तविकार को केवलान्वयी-सुज्ञा पु० [सं० केवलान्वयन] न्याय में एक प्रकार का दूर करनेवाला माना है । हेतु जिसकी सहायता अनुमान में ली जाती है जिसे पूर्ववत' भी केवडई–वि० [हिं० कैयडा+ई(प्रत्य॰)] केवड़े के रंग का ! कहते हैं । वि० दे० 'ग्रनुमान'। केबडई-सा पुं० एक प्रकार का रग जो केबटे की तरह का हुलका केबली-सक्षा पुं० [सं० के वलिन्] [ौ० के वसिन] १ मुक्ति का अधिकारी माधु । केवलज्ञानी ।२ मुक्ति प्राप्त सानु । तीर्थंकर पीला मिला हुमा सफेद होता है और जो शाहाच, खटाई (जैन) ।। मोर तुन के फूलों को मिलाने से बनता है। केवली--वि० १ अकेला । निःसग २ विशुद्ध । प्रामवय के निदात कवडा सय ५० [सं० के विका] १.सफेद केतकी का पौधा जो केतकी को माननेवाला । ३ पूर्ण ज्ञान प्राप्य ज्ञान (को०] । से कुछ बड़ा होता है। == =