पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५२२

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केतुम १७३३ केदारी के फोर्ट में तीन तीन अक्षर लिखे जाते हैं। इस प्रकारे जन्म कैदर'- वि० [सं०] एपी या नेगी वान।। भेगा (३०) । नक्षत्र से यश का निश्चय किया जाता है । वर्देश के वर्ग केदर--सा पु० [सं०] १. श्यया । वहुर । २ प का में अन्य ग्रहो का ५ तदिन होता है। इसका भी प्रचार गाल नाम (०) । मे अधिक है। केदली--सा मुं० [ १० पद ] फसे । पेड़। फटी वृक्ष । के तुभ- सज्ञा पुं० [सं०] वादिल । मेष (को०)। १०-विधिहि दि तिन !•४ परंभ । विरचे कनक हेदी केतुमती--सद्या स्त्री० [सं०] १ एक वधं समयूर का नाम जिनके प्रम। (-मुसो (३०) । विपमें पाद में सगण, जग, सुगए अौर एक गुरु होता है केदार--सुज्ञा पुं० [सं०] १ ३६ त नि धान बोया या रोपा जात और समपादो में भगण, रगण, नगए पर दो गुरु होते हैं। है । किया । २ वृक्ष के नीचे जमीन पर ना इभा नारा । जैसे,—प्रभु जी हरी हुमहि तारो, मो मन तें सभी प्रध थवता । ३. मेघ राग । चोय पुर। यह उतू जाति का निका । अपने हिये यह विचारो, राम मनाथ को पछि राग है और रात के चुमरे पहुर में 11 बात है। ३०--- वारो।–२ रावण की नानी थत् सुमाली राक्षस की पत्नी का नाम । मुख मुरती में फेंदा ६ गावे |--पननद, पृ: ५५ ५ ५. केतुमान'–वि० [सं० फतुमत १ तेजवान। तेजस्वी । २ नजा हिमालय पर्वत फा एनिवर सौर प्रसिद्ध तीर जी केदार बाला । जिसके पास पवाका हो। ३. बुद्धिमान् । ४ ।चह्न नाम नाम की एम् शिवलिंग हैं। ५ शिप फा एक नाम । या प्रतीकवाला। प्रतीकयुक्त [३०] । विशेप-३० 'केदारन'। केतुमान-सा पुं० १. हरिवश के अनुसार फाशिराज दिवोदास हूँ । ५ झामरू वेज फा एक त । केदारक-सा पुं० [सं०} सी धान । वश का एक राजा जो धन्वंतरि का पुत्र या । २ एक दानव । केदारलड-सा पुं० [सं० केदार ३] १ कपुर।ग का वह वा का नाम । 'माप जिसमें केदारतीय हैं माप का दर्शन है। 3 दि केतुमाल - सज्ञा पुं० [३०] जबुतूप के नौ खडों में से एक हैं। विशेप-ब्रह्माड पुराण के अनुसार इसमें सात पर्वत और कई पुराण ( काशीद ) के अनुसार वाराणसी में तीन ग्रह । नदियाँ हैं । सिद्ध और देवपि प्राय इन्ही नदियों में स्नान भूभाग में से एस ( नान् । कार का दावा है जो करना पसंद करते हैं। इस वर में प्राय जगली जानवर भी केदारनाय का मदिर है। ३ जल रोकने के विर्य बनाया इमा रहते हैं। मिट्टी का छोटा बध {०।। केतुमालक- सुश पु० [सं० दे० 'केतुमाल' । केदारगग-सा • [ 8० केदारगर } गान प्राने की एक केतुपष्टि-सज्ञा स्त्री० [सं०] ध्वज को बढ । पाका फा देश [को०] । प्रसिद्ध नदी को गंगा में मिलती है। केतुरत्न-सा पुं० [सं०] लहसुनिया नामक रत्ने । केदारनट----स्वधा पुं० [सं० फवार+नट पाव जाति का एक संकर केतुवसन-सा पुं० [सं०] पत्रका | ध्वजा । झडा [व]। रग जो नट भौच केदार को मिलाकर बनता है। केतुवक्ष-सा पुं० [सं०] पुराणानुसार मेरु के चारों और के पूर्व तों। विशेप---यह रात के दुगुरे पर म Trम वाता है। इसमें ऋपभ बबित है । सवपरित्रात में इसे प्रो द्रव ३।३ झा राग माना पुर के चार वृक्षों के नाम । है और इसमें कूपन तथा दैवत वजित पत्तावा है । किठी विशेप----विपण पुराण के अनुसार मे फी पूर्व दिशा में मदराचल किसी के मत से यह नदनापण का छटा पुर्य भी है। है जिसपर कदव का वृक्ष है, दक्षिण और गधमादन पर जंबु, राया पं० [सं०] हिमालय के म व वि एक पर्व का नाम, पश्चिम और विपुल गिरि पर पीपल और उत्तर घोर सुपायं जिसके विघर पर केदारनप नामक शिनग है । पर्वत पर वट वृक्ष है। इन्हीं चारो वृक्षों को केतुवृक्ष फड्ढे हैं । विशेष—यह समुदं ये ७३३३ फुट ऊँचा है । इसका ऊपरी भाग के तेक -वि० [सं० कियत् +ए] किवने एक । कितने ही उ० महुपये पहलाता है और सदा दरफ से बुझा रहता है । बहुत | ऐसे करत केतेक दिन भए ।- दो सौ बावन, पृ० १६५। प्राचीन काल से यह स्थान एक पवित्र तीर्थ माना जाता है । के तो—सा पुं॰ [देश॰] अमेरिका के गरम देशो में रहने वाला एक इसके पासपास मौर भी अनेक छोटे छोटे तथं हैं । वैशाख से जानवर जो लोमड़ी के आकार का होता है मौर ईव के खेतो माफि तक भारत के भिन्न भिन्न प्राती सै घनै पात्र दर्शन को वडी हानि पढ़ाता है। के लिये यह जाते हैं। के तो --वि० [सं० कति] कितना । | केदारा-सम्रा पुं० [सं० करी] दे० 'केदार' । केथि:--क्रि ० वि० [सं० कुत्र, अप०, केत्थ, प० कित्यु, कित्थे ] केदारी-सज्ञा स्त्री० [सं०] दीपक राग की पांचवी रागिनी जो राई दे० 'कहाँ ।' उ०—करहा पानी खेच पिठ, त्रासा घणा सहेधि । के समय दूसरे पहर की पहली घड़ी में गाई जाती है। इसे छीलरियउ ढुकि सि नहीं, मरिया के थि लहेसि ।–डोला० १०, केदारी भी कहते हैं। ४२६ । विशेष---यह गोढ़य जाति की रागिनी है और इसमें पभ वया केद( सझा पुं० [ प्र० क द ] दे० 'कैद' । उ०-वदीखाने में कैद धवत स्वर वर्जित हैं। इसका सरगम यह है ।—नि से ग म प राखे ।-दो सौ बावन०, पृ० १३८ । नि नि । पर सोमेश्वर के मद से यह संपूर्ण नाव की रागिन