पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५२०

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की केतु' जिसमे सागि तरकारी, फलादि वोए मोर लगाए जायें। नए धूलिपुष्पा। मेघ्या । इदुकलिको । शिवदिष्ट । ऋका। पौधो का बाग । नौरगा। दोघंपा । यिरगया । कटौदला । दसपुष्पा । केवदा।। केड-सी पुं० [सं० करीर बाँस का कल्ला] १ नया पौधा या एक रागिनी का नाम । ३०--रामकली, गुनकली, केतुकी, अकुर । कपल । कना । २ नवयुवक । उ०—वह सदा इसी स' सघाई गायो । जैजैवदी, जगतमोहिनी, सुर सों बीन ताक में रहता था कि किस घराने में कौन कौन नए के हे वजारो --मूर (शब्द०)। हैं । सो अजान और एक सुजान (मप०) । ३ खेत से काट कतनसंग पुं० [सं०] १ नि म । अाह्वान । २ ध्वजा । उ०हुई फसल या घास का गटटा । प्रकट सजीव चित्र सा या शुन्य पट पर दडीन केन । केणिक -सञ्ज्ञा पुं० [सं० केणिका= खेमा खेमा । तबू । रावटी । के निकेतन में --माकेत, पृ० ३९७ । ३. विन् । प्रदोस । । —(दि०)। ४ घर । ५ धन्वा । दाग (को०)। ६ शरीर (को०) 1 ७ कैणिका- सवा स्त्री० [सं०] दे॰ 'केणिक' । यान। जगह ।। केन—सधा पुं० [सं०] १ घर । भवन ।। २ स्थान । जगह । वस्ती । केतपू'-- सी पुं० [सं०] अन्न साफ फाइनेव'ला । ३०--फूल छुन फिर पूछौं जो पहुचो वहि केत । तन नै उछावर केत न सेवा स्त्री० [अ० केटिस] पानी गरम करने का एक टोंटीदार क मिल ज्यो मधुकर जिउ देत ।---जायसी (शब्द०)। ३ बरतन, जिसके मुंह पर ढकन रहता है। इसमें विशेषत: केतु । ध्वजा । ४ बुदि। प्रज्ञा । ५ सफल। इच्छाशक्ति । चाय के लिये पानी गरम करते हैं। उ०---स्टोव व मिर ६ मणः । सलाह। ७ मन्न । जैसे—केवपू। ८ ७ केतु nाति ने चाय की केनी चढ़ा दी |--सन्यासी, पृ० ७८ । नाम का एक ग्रह । वृ० शनिवार तीसरी छठ केत ।-- प० रसो, पृ० ५५। 8 ग्रामश्रण। निमरण (को०)। १०. । केता -वि॰ [सं० कियत् [ी० केजी) कितना । सूपत्ति (को०) । ११ प्रकाश (को०) । १२७ केवड़ा । केतान - वि० [हिं० 'केना' का बहु० व०] किने । उ०-भूर केतक-सज्ञा पुं० [सं०] केवडा । उ०-लख के छ तकि जाति वीर के न गया नये लोग रे । वारो यार बिह ये सुपन को गुलाव ते तीक्षण जानि वजे इरि के ।--केशव (शब्द०)। जो रे !-~-राम० धर्म०, पृ० २५४।। केतक-वि० [सं० कति +एक] १ कितने । किस कदर । २ वहृत । २ न। कतिक --वि० [म० कति+एक किना । किप कदर । ३० कहीं कार उ०--केतक दिवस राज्प तव कियऊ। एक दिवस नारद मुनि । बात अपने गोकुल की केतिक प्रति प्रजवाल -सूर (शब्द०)। गयऊ ।-सवल (शब्द॰) । केती --वि० [३०] ३० 'के' । उ०--भूपन जई। लौं गन वह केतकरf-सज्ञा स्त्री० [हिं॰] दे॰ 'केतकी' । उ०-तुहू जौ प्रीति निबाई लौ भटकि हरियौ लखिए कछु न केती बातें चिन चुनिये । | आँटा । भौर ने देख कॅनकर कौटा ।—जायसी (शब्द०)। भूपण ग्रं॰, पृ॰ ३२।। केतकी-सज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ एक प्रकार का छोटा झाड़ या पौधा । केतीहेक -वि० [सं० कियदेश, प्रा० केति+राज० हेक= एक केवड़ा। उ०--गमक रहा था केतकी का गघ चारो ओर । दे० 'केतिक' । ज०-ढोलउ मारू एक कवि के तीहेक दुर।-- साकेत, पृ० २७४।। ढोला० ६०, ६४६ ।। विशेष—इसकी पत्तियाँ लवी, नुकीली, चिपटी, कोमल और - सपा पुं० [सं०] १ ज्ञान २ दीप्ति। प्रक र । ३ घ्यवा । चिकनी होती हैं और जिनके किनारे और पीठ पर छोटे पताफा 1४ निशान । चिह्न। ५ पुराणानुसार एक राक्षस छोटे कोटे होते हैं। केतकी दो प्रकार की होती है---एक का कबध । सफेद और दूसरी पीली । सफेद केतकी को हिंदी में केवड़ा विशेष-सह राक्षस समुद्रमथन के समय देवतामो के साथ और पीली या सुवर्ण केतकी को केतकी कहते हैं । इसकी बैठकर अमृतपान कर गया था। इसलिये विष्णु भगवान् पत्तियों से घटाइयाँ छाते गौर टोपियाँ बनती हैं। इस ने इसका सिर काट डाला । पर अमन के प्रभाव से यह मरा तना नरम होता है और दोतलों में हाट लगाने के काम में नही पौर इसका सिर राहू मौर कवाध केतु हो गया । कहा अता है। कहीं कहीं इसकी नरम पत्तियो का साग भी है इसे सूर्य और चंद्रमा ही ने पहचाना था, इसीलिये बनाया जाता है । बरसात में इसमें फुल लगते हैं जो लथे । यह अबतक ग्रहण के समर्म सूर्य और चदमी को असता है। सफेद रंग के और बहुत सुगधित होते हैं । इसका फूल बाल ६ एक प्रकार का तारा जिम के प्रकाश की पूछ दिखाई देती की तरह होता है और ऊपर से लवी लवी पत्तियो से ढका है। यह पुच्छल तारा कहलाता है । उ०-कई प्रमु हँसि पनि हुआ होता है। फूल से अतर मौर संगधित जल बनाया। हृदय हेराहू। लूक ने असनि केनु नहि राहू —तुलसी (शब्द॰) । जाता है और उससे कत्था, भी बसाया जाता है। ऐसा विशेप--इस प्रकार के अनेक तारे हैं, जो कभी कभी रात को ' प्रसिद्ध है कि इस फूल पर भरा नहीं वैठवा । पुरणिो के झाड की तरह भिन्न भिन्न प्रकार के दिखाई देते है। अनुसार यह फूल शिव जी को नहीं चढ़ाया जाता । वैद्यक मे भारतीय ज्योतिपियो में इनकी संख्या के विषय में मतभेद सफेद केतकी बालो की दुर्ग धि दूर करनेवाली मानी गई है। है। कोई हजार, कोई १०१, कोई कुछ, कोई कुछ मानता है। और इसका शाक या मूल स्वाद में कडुवापन लिये हुए मीठा नारद जी का मत हैकि के एक ही है और वही मिन्न भिन्न और गुण में फफनाशक तथा लघुपाक कहा गया है । रूप को दिखाई पड़ता है । फुलिन में भिन्न भिन्न केतु के पर्या–प्रशूचीपत्र । हुलीन । जबुल । जवूक । तीक्ष्ण पुष्पा । विफल । उदय का भिन्न भिन्न फल माना गया है। ज्योतिषि का मत