पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५१९

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केतुपताक केतु - संज्ञा पुं० [सं० केतकी [ केवडा । केतुक केतुकी+-सा पु० [सं० केतकी | केतूफी । केवडा ! ३०-- (क) पल्लव सुबीर केतुकि नवल, वर बसत वायह हले । तम तेज रुधिर -ज्यो बहुल कलह कित्ति जविका पुल --नृ० ० ७॥१६० । (ख) कोइ केतुकि मालति फुलवारी ।—जायसी ग्र ०, पृ० २४७। तकडली-सुज्ञा सी० [सं० केतुकुण्डली] फलित ज्योतिष के अनुसार वारह कोष्ठों का एक चक्र, जिससे प्रत्येक वर्ष को स्वामी निकाला जाता है। विशेष—इस चक्र के बनाने की रीति यह है कि कोष्ठी में पहले कोष्ठ से प्रारंभ करके ग्रहो के नाम इस क्रम से रखते हैं--- सूर्य, केतु, बुध, मगल, केतु. वृहस्पति, चंद्रमा, केतु, शुक्र, राहु, केतु और शनि । फिर उत्तरमाई से आरंभ करके नक्षत्रो को कोठो में इस प्रकार भरते हैं कि सुर्य आदि ग्रहो के नीचे तीन तीन नक्षत्र और केतु के नीचे एक एक नक्षत्र ययाक्रम पडे । इसके उपरांत चक्र में कुडलीवाले के जन्मनक्षेत्र को देखते हैं। वह नक्षत्र जिस ग्रह के कोष्ठ में होता है, वहीं नयम व का वर्देश होता है इसी प्रकार दूसरे, तीसरे आदि aप का भी निकालते हैं। इसका प्रचार वंग देश में विशेष है। चक्र है कि वे तु अपने उदयकाल ही में या उदय से पंद्रह दिन पीछे शुभ या अशुभ फल दिखाते हैं। आजकल के पाश्चात्य ज्योतिपियो ने दूरबीन द्वारा यह निश्चित किया हैं कि केतु की संख्या अनिश्चित है और वे भिन्न भिन्न पटलों में भिन्न भिन्न दीर्घवृत्त या परवलवृत्त कक्षाग्रों में भिन्न भिन्न वेग से घूमते हैं । इन कक्षा की दो नाभियों में सूर्य एक नाभि होता है। दीर्घवृत्तत्मिक कक्षा होने से ये तारे जैव रविनीच के या सूर्य के समीपवर्ती अक्षांश में होते हैं, तभी दिखाई पड़ते हैं। रविनीच के कक्षा में अाते ही ये तारे कुछ दिखाई पडने लगते हैं और पहले पहले प्रकाश के धब्बे की तरह दूरबीनों से दिखाई पड़ते हैं। ज्या ज्या ये सूर्य के समीप अाते जाते हैं इनकी केतुनामि दिखाई पड़ने लगती है फिर क्रमशः स्पष्ट होती जाती है। पर कितने ही केतुओ की केनुनाभि नहीं दिखाई पड़तीं । उनमें केतुनाभि ३ या नहीं, यह सदिग्ध है । इन तारों की केतुनाभि उनके अावरण में पिटी हुई सूर्य से २ अथ से ६० अंश तक में दिखाई पड़ती है ! इन तारो के साथ प्रकाश की एक घडी लगी होती है जिसे केतुपुच्छ कहते हैं । इम क तुपुच्छ में स्वयं प्रकाश नही होता । यह स्वयं स्वच्छ पारदर्शी और वायुमय होता है जिसमें सूर्य के सान्निध्य से प्रकाश आ जाता है। यही कारण है कि पुच्छ की दूसरी सोर का छोटे से छोटा तार तुक दिखाई पसता है। सन् १६८२ ई० के पूर्व के ज्योतिषियो की यह धारणा थी कि पुच्छल तारे विना ठीक ठिकाने के मनमाने घूमा करते हैं, न इनकी कोई नियत कक्षा है और न इनके घूमने का कोई नियम है । पर सन् १८६९ ई० मे हेली साहब ने हिसाव लगाकर एक तारे के विषय में यह अच्छी तरह सिद्ध कर दिया कि वह वहेले की तरह नहीं घूमता, बल्कि लगभग ७६ वर्ष के बाद दिखाई पड़ता है । इस तारे को हेली साहब का पुच्छल तारा या 'हैली केतु' कहते हैं । तब से ज्योतिपयो का ध्यान इन केतु की गति की ओर आकर्षित इमा और अबतक किन्ते ही तारा की गति और कक्षा मादि मा पूरा पता लग चुका है। ऐसे तारों को ज्योतिप में नियतकालिक केनु कहते हैं। सबसे विलक्षण वात-ज़िमछा पता सन् १८६२ ई० में इटली के परले नामक ज्योतिषी ने लगाया-यह है कि कितने ही पुच्छल तारो की कक्षा मौर कितने ही उरुळापु जी को कक्षा एक ही है। उसने इस बात को सिद्ध भर दिया कि १८६२ के केतु और सिहगत उल्वर, ये एक ही कक्षा में भ्रमण करते हैं । केतु को पुच्छलताया, नी, झाड़, भावि भी कहते हैं। ७, नवग्रहों में से एक अह् । यद्यपि फलित में इसे यह माना है। यपि सिंजात अ थों में चंद्रकक्ष और ऋतिरेखा के प्रध.पति के विदु को ही केतु माना है । विशेष--६० पति' ।। ६ प्रकाशकिरण [को०)। ६ प्रान या विशिष्ट विद [०१ । १०. दिन का समय । दिन [को०]। ११. असार । रूप । प्राकृवि (को०)। १२ एक वामन या बौनी जाति (को०)। १३ . 1 वैरी (को०) । १४, एक प्रकार का रोग (को०)। १ १० \ पनि, दमित्र, (उच्मा , रेवी, पूर्वापद्ध/ कृचिका शैदियो मृगशिरा, लिनी रा० भार्दा पुनर्वसु, दाद, उपद, sunaukeernational एप्प विनि | X इरव, यि श्लॅना/ सात X

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मा. अवनी . | चरा झानी। 7 धावा, केतुचक्र - संघा पुं० [सं०] दे० 'केतुकुली ' [] । केतुतारा-सा पुं० [सं०] पुच्छल तारा (०) । केसूपताका--सी जी० [सं०] फलित ज्योतिष के अमीर नौ कौष्ठ। का एक चम्न जिससे वषेश निकाला जाता है। विशेष---इस चक्र में न ग्रह, सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध शनि वहम्नति हु, शुक्र, केतु क्रम से रखे जाते हैं। फिर कुहिक से लेकर भरणी तक और सूर्य से लेकर शुक्र तक प्रत्येक ।