पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५१८

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१०३४ केंचुकी पर कभी अपने शरीर को सिकोड लेता है, और कभी लबा केद्रातति-वि० [सं०केन्द्र + प्रतीत] केंद्र का प्रतिगामी । केंद्र से कर देता है । यह मिट्टी ही जाता है । इससे पीले रंग की एका घहिमु य । द्राप । ३० --पुरुप केंद्रात्रीत चति के प्रति लसदार वस्तु निकलती है, जो रात को चमकती है। थापित होकर विश्वविनय ६ जाका। करके बाह्य जगत, २ केंचुए के प्रकार का सफेद फीडा जो पेट से मल द्वारा वाहुर । में अपनी फीनि प्रयारित करना चाहता है ।—प्रम० अौर निकलता हैं । गोक० पृ० १०७ । क्रि० प्र०—गिरना । पइना । कद्रोपगामी–वि० [म० केन्द्रागिन] केंद्र ही विपरीत दिगा में के चुकी —सक्षा बी० [सं० फञ्चुकी] दे० 'कचकी' उ०-वेध भवर । जानेवाला ।। कंठ केतकी । चाह वेध कीन्ह के चुकी --जायसी ग्र० के द्वापगामी–वि० दे० 'केंद्रापरवी' ।। (गुप्त) पृ० १९५ । कद्वापमुखी---वि० [सं० लापमुवन] केंद्र का विरोधी । केंद्र से के चरी-सच्ची ची० [हिं०] दे० 'केंचुली । उ०-अनग के घाट नहाय बाहर रहनेवाला । उ०-जो भारदर्ष के जीवन में केंद्राप नर्स भने पातक केचुरी मानो भुजग ।---श्यामा०, पृ० १२६ । मुजी प्रवृत्ति जगने पर अलग राष्ट्र बन जाते हैं 1-मारव० के चुल-सल्ला वी० [सं० झञ्चुक] [ वि० के चुली ] सर्प ग्रादि के शरीर नि०, पृ० १६२ । | पर खोल जो प्रति वर्ष अापसे आप पृथक होकर गिर केंद्राभिमामी-वि० [सं० होन्द्राभिमानिन] केंद्र की ग्रोर जानेवाला । जाती है । उ०—निज के चुल मिस धरत हैं, फाहा तरु व्रन । केंद्र का समर्थन करनेवान । उ०-- मौर्य काल की राज्य पास 1–भारतेंदु स ०, भा॰ २, पृ॰ २२१ ।। संस्था में केंद्राभिमामी और केंद्राएगामी प्रवृत्तियों की किस क्रि० प्र०-छोड़! ।--झगड़ना 1-बदलना । प्रकार काम कर चो, इनका १३ कर चुके हैं ।---मा० मुहा०—-केचुल वैदलना=पोशाक बदनना। कपई। वेदलना : ६० ६०, पृ० ६६१ ।। (ब्यग्य) । के चल में स्नाना या भरना = कॅचुर छोड़ने पर केंद्री–वि० [३० केन्द्रिन] कद्र में स्थित । दस्यिते । उ॰--कद्री हैं। होना ।। चवये कर स्वामी योग नद्र चड़ागरिंग ! गुन द्विज भक्त सुकन के'चुली–वि० [हिं० के चल] के चुल की तरह का । गुण मागर दाता ए र शिरोमणि ।-रघुराज (ब्द०) । यौ०--केंचुली लचका या केंचुली की लचकी एक प्रकार का केंद्रीभूत-वि० [सं० तेव्रोमूत] केंद्र में स्थित वा एकत्रित । पुजीमूत। | लचका जो खीचने पर सौंप की तरह बढ़ता है ।। उ०—सुन, केवल मुप की हु नं प्रत् कद्रीभूत हुमा इतना, के चुली--सज्ञा प्रो० दे० 'केचुल' । छायापच में नव तुषार का सार मिलन होता जितना । के चुवा-सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'के चु' । कामायनी, पृ० ६ । के त-सच्चा पुं० [बँत का अनु य०ि अ० केन] एक प्रकार का मोटा केंद्रीय–वि० [सं० फेंद्रीय] १ फेंद्र सु वधी । २ केंद्रस्य । केंद्र में वे जिसकी छपियाँ उनती है । स्थित् । ३ प्रधान । मुन् । वरिन्छ । श्रेष्ठ । के दुसा पु० [सं० देन्दु] वैद्' का पेड़ । केंद्राभिमुखी-वि० [सं० केन्द्राभिमुश्नि] ३० 'केंद्रामिनामी' । कदुक-सच्चा पु० [सं० 'केन्दुक] १ एक माप । २ एक प्रकार का । केंद्विक-- वि० [सं० केन्द्रिय] केंद्र बँधी 1 केंद्र का। केंद्रीय । उ०| तेंदू (को॰] । कई मामलों में जनता का सिद्भात मानते हुए भी यह के दुवाल---सा पुं० [सं० केन्दुबाल] नाव देने का इड़ । बा । केंद्र शासन मे जनमन्ता का रूप लाना टेढ़ी खीर थी।अरित्र । केनिपात । हिंदु सभ्यता, पृ० १२ । कद्र--सा पुं० [सं० ३न्दुतेदू ।। केंद्रित-वि० [सं० केन्द्रिन] १ केंद्र मे ति २ निश्चित स्थान पर केंद्र--सच्चा पुं० [सं० वेन्द्र, सू० फेण्ट्रन] १ किसी वृत्त के अ दर । एकत्रित ने] । का व विदु जिससे रच्चि नफ खाचा १६ सय रखए परम के'.-प्रत्य० [F० फा] म वधसूच' 'फा' विभक्ति का पहुवचन रूप । घरावर हौं । नाम । २ किसी निश्चित से पा से ६.०, १८०, जैसे, राम के घोडे । २७० र ३६० अ । के 9 तर का स्यने । ३ पतिप शास्त्र विशेप-यदि सुवधवान के मार्गे फोई विभक्ति होती है, a मे ग्रहों के दो केंद्र - शीघ्र केंद्र और मद केद्र। अहू के एक वचन में ‘म’ फ; के स्थान पर 'के' पाता है । जैसेमध्य में से मंदोच्च घटाने से मद केंद्र और शीघ्रोच्च घटाने से (क) वह राम के घोहे से गिर पड़ा । (ख) हुम उसके घर शीघ्र केंद्र का ज्ञान होता है ४ फलित के अनुसार कु छ नी में (पर) ए थे । पूहला, चौथा, सातवीं और दसवां स्याने । ५ मुख्य यो के+सर्व० [सं० 'क' का यहु० १०] कौन ? उ०—कहहु कहिँहि प्रधान स्थान । ६ सदा रने का स्थान । ७ वीच का है कान्छि मलाई । मानस, २।१८१ । स्थान । ८ किसी वस्तु के उत्पादन, वितरण अति को के°+--सवं० [हिं०] क्या ? । उ०—के भर हू मन के सदेह हैं । स्यान सेंटर । दो सौ बावन ०, २० २, पृ० ३११ ।। यौ॰—कॅव्रग। केद्रगामी = केंद्र की अोर गमन करनेवाला । केइ –सर्व० [fe • कोई] १, दे० 'कोई 1 उ०—त के घी केंद्वस्थ = केंद्र में स्यिति । केंद्रस्थान । केइ अधीरा । केइ धीर) धीर इस मीरा नद यु २, पृ०