पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५१७

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केडा ।। पृ० १४७ । २. किसनें । उ०—कैइ तव नासा कान केकय सुब्बा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश का नाम । । निपाता ।—तुलसी (शब्द॰) । विशेष—मायण के अनुसार यह देश उपास और शमनी नदी केइक -वि० [हिं०] कुछ। कई एफ । उ०—सुदर घर घर रोवण की दूसरी ओर था और उस समय वह की राजधानी गिरिवत्र परयो कील की मास । केइक बारन कौं गए फिर या राजगृह् यी । अब यह देश कश्मीर राज्य 9 अतर्गत है और के इक को नास ।-सुवर० स०, भा॰ २, पृ० ७०४। कक्का कहलाता है। पहाँ के निवासी गककर, गधर यी फक्का के प्रा--संज्ञा पुं० [सं० के मुक] १.कच्चू । २ चुकंदर । ३ शलगम। | कहलाते हैं। केउ- सर्व० [हिं० कै +उ (प्रत्य॰)- भी] कोई । उ॰—अलैम २ [स्त्री० केकयी] केकय देश का राजा या निवासी । ३ दशरथ । अलौकिक रूप तेव, तर कि सक नहि केउ । जानै सोइ करि के श्वशुर और कैकेयी के पिता का नाम । कप', तुम, जाहि जनवौ देउ --विश्राम (शब्द॰) । केकपा-सच्चा जी० [मु०] १. केकय देश को स्त्री । २.राजा दशरय के उक -- वि० [हिं०] कुछ। किंतने एक । उ०-केउक कलप बीते की रानी जिससे भरत जी उत्पन्न हुए थे। दे० 'कैकेयी' । लोन मपरत हैं।-- सू दर० ग्र०, मा० २, पृ० ४१४) केकर-सच्चा पुं० [सं०] १. ऍचा । भेगा । २. तत्र में चार अक्षरों का केटा--संज्ञा पुं० [सं० कट] एक प्रकार का बहुत विपैला काला एक मत्र। मपि । औपच्चों में इमी का विप काम में अतिा है । करैत । यौ॰—केकराक्ष । केकरने । केकरलोचन=वक्र दृष्टि का । ऐची केउटी--- वि० [हिं०] दे० 'केबटी' । मखवाला ।। केउर -संज्ञा पुं० स० केयूर] है। 'ब्यूर'। केंकर -सवं० [हि० के+कर (प्रय०)] कितका । केऊ@t-वि० [हिं०] कुछ। कई । केकरा–श पुं० [हिं०] दे० 'केकडा' । केऊ -सवं० [हिं०] दे० 'के' । केकसी-सुधा स्त्री॰ [सं० के फसी) ३० 'केक' । केक'--0सवं० [हिं०फई+एक] कितने । कुछ। केका --- सच्चा स्त्री० [सं०] मौर की बोली । मोर की कुक । के--सज्ञा पुं॰ [अं॰] चीनी फल और अाई के मिथण द्वारा तैयार यौo--कैकारव= मोर की बोली । उ०—-एक पोर गहरी खाई में को हुई एक तरह की अँगरेजी मिठाई जो गोलार्द्ध लिये हुई | सोया तरुग्रो का तम् । के करिव से चकित बखेरे मुवा स्वप्नो फा ऊँची होती है । सभ्रम ।--ग्राम्या, पृ० १०५।। केकीण-सज्ञा पुं० [सं०] केकाण देश के घोड़ा। ३००-हाथी चाया विशेष—यह छ? मझोले अौर व प्राकार में कई प्रकार की दोढसो । अमीय सेहस चल्यो के हाणु ।-वी रायो पृ० १२। | होती है। जन्मोत्सव के लिये बड़ा केक बनाया जाता है । क्रि० प्र०-काटना = जिसका जन्म दिन मनाया जा रहा हो उसके। केकान -सज्ञा पुं० [स० केकाण, राज० फेकण, केकाण गुच | द्वारा या जिसका सम्मान स्वागत किया जा रहा हो उसके द्वारा ककोण] के कणि देश का घोडा। उ०—दुरद अयुत रथ अयुत " केक काटा जाना और उपस्थित जनो मै वितरण । | एक हजार के कान --पृ० ० २ । २१७ } केकड़ा-सुज्ञा पुं० [सं० कर्कट, पी० ककट ] पानी का एक कीड़ा जिसे केकावल–सच्चा पुं० [स०] मोर । मयूर [क] । अठि टाँग यौर दो पजे होते हैं। कैंकिंधा--सा स्त्री० [सं० किढिकन्धा दे० 'किंवाधा' । उ०विशेप-यह साधारण गडहियों से लेकर समुद्र तक मे पाया बालअजो ध्याकाड विध मुणिया सूक्षम माइ । कहै में छ जाता है और भिन्न भिन्न प्रकार का, छोटा, बड़ा और कई जिमिही कहू, कॅकिंधा हिव झाड -रघु० ६०, पृ० १४४) रगो का होता है । यह अड्ज है और इसके विषय में कहा किक-सज्ञा पुं० [सं० फेफिकत मयूर । मोर (ौ०] । • जाती है कि इसकी माता अंडा देने से पहले मर जाती है। केंकिनी-सृया खौ० [सं०] मयूरो। उ०-जो छा जाती गगन तल बरात में केकड़े जो खाते हैं, और अव मादा का पेट अडो | के अंक में मेघ माला । जो के को ही नटित करती हैं किनी साय से भर जाता है वन वह मर जाती है, और अंडे में से पकने क्रीड़ा --प्रिय०. पृ॰ २६३ । । पर, छोटे छोटे बच्चे निचलते हैं। कहते हैं कि पांच घोल के6ि,Gों की संज्ञा पुं० [सं० फेफिन्] मोर । मयुर। उ०—(क) बदलने पर यह पूरा केका होता है। यह सबी भूमि पर भी चल सकता है। गरमी में छिछले पानी या किनारे पर रहता केकि कंठ दुति स्यामल अंग । तडित विनिंदक बसून पूरगा । है मौर जाड़े में गहरे जल में चला जाता है, जहां कुछ —तुलसी (शब्द०) । (1) कोक्ति केकी कपतन के हुन छलि वघहर किसी दरार या गड्ढे में रहता है । वडा केद्दा अपने करे यति पानंद वारी ।--मदिराम (शब्द॰) । छोटे मोर निर्वत को को खा जाता है । भिन्न भिन्न केचित्--सव० [सं०] कोई । कोई कोई । प्रदेशों में लोग इसका मास भी जाते हैं । वैद्यक में सफेद केकड़े । । केचुपfgf--संज्ञा पुं० [सं०फञ्चक = चो) दे० 'क वृक' ३० झिनिल केचुप उनत यन हार --विद्यापति, १० १३१ । फा मास वायु और पित्त का नाम करनेवाला अौर ६धिकारक। तय काले केकडे का मासु बलकारक, गरम और वातनाशक | कछवारी-वि० [स० कच्छ+हिदीनो फच्छ की। कच्छवाली । माना गया है। उ०---" केदारी सुपारी नियारी --पः सो, १० ५५ ! मुहा०केफड़े की चाल = टेढो तिरी चाल। केजा-सा पुं० [हिं०] ६० 'फैन' । केवारी-सया भी० [हिं० न= साग भाव+वारी] वृढ़ पाग