पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५१५

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कृष्णमणि १०३३ के चुप्रा । कृष्णमणि-सुद्धा पुं० [१०] नीलम । कृष्णाजिन-सा पु० [मं०] १ काले मृग का चमड़ । मृगचर्म । २ कृष्णमल्लिका-सुधा औ० [सं०] कृष्णपर्णी । काली पत्तियोंवाली। । एक प्राचीन ऋवि का नाम ।। तुलसी । कृष्णाघ्वा- सच्ची पुं० [सं० कृणध्वन्] मरिन् । प्राग [को॰] । कृष्णमुख---सु पुं० [सं०] १ लंपुर । २. एक दानव का नाम । कष्णाभिसारिका-सया स्त्री० [सं०] वह अभिसारिका नायिका जो । कृष्णमुगु-सा पुं० [सं०] कृष्णसार मृग । काला हिरन क्वैि० । अधेरी रात में अपने प्रेमी के पाम सं तवान में आये । कृष्ण यजुप-चुंशी पुं० [सं०] यजुर्वेद के दो भेदो में से एक। इसमें ८६ कृष्णायस-- सज्ञा पुं० [सं०] लोहा } का लौह (को०)। शाखाएँ हैं, जिनमें तैतिरीय और अपस्तंब अादि शाखाए। कृष्णाचि-या पुं० [सं०] अनि छे । प्रधान हैं। वि० ३० 'यजुर्वेद' । क’णार्जक-सुज्ञा पुं० [सं०] अननुल । वदंरी [को०)। कृष्णयाम-सी पुं० [सं०] अग्नि ]ि । कृष्णार्पण-सज्ञा पुं० [सं०] कुटाइ केनिमित्त अपना कारन या देना । कृष्णरक्त-सा पुं० [सं०] गहरा सुवं रग ! लाल टेसे रंग (को०)। कृष्णार्पन-संज्ञा पुं० [सं० कृष्णार्पण] प्रेग चे निमित्त प्रदान करना या देना । उ०----या प्रकार निष्काम भाव सो फुटापन कृष्णरक्त-दि० गहरे लाल रंगवाला (को०] । वि ए कमें अमरूप होई, भक्ति को उत्पन्न करत हैं -- मी कृष्णराज--सा पुं० [सं०] भुजंगा पक्षी । बावन० भ० १, पृ० ६४।। कृष्णरुहा--- संज्ञा स्त्री० [सं०] जतूको नाम को लता (को०] । कृष्णले- सी पुं० [सं०] १ घुघु । गुजा । २ गं जा का कृष्णावास-मज्ञा पुं॰ [सं०] मेश्वग्ने। पीपज का वक्ष (०] । पौधा (वै । कणाप्टमी- सज्ञा स्त्री० [सं०] माद कृष्ण पक्ष की अष्टमी, जिन कृष्णला--सा ही० [मं०] १. घु घच । २. शीशम का बसे । ३. दिन कुरण फा जन्म है। यह । रत्ती (गरिमाण) । कप्णिका- सज्ञा जो० [सं०] १ राई । ३ श्यामा पर्यो । कृष्ण लोह-संज्ञा पुं० [मुं०] चुवक परयर [] । करिश्मा---सज्ञा स्त्री० [कृष्णिमन] कालापन । क्रालिमा (०] ।। कृष्णवरिल को-संझो खी॰ [सं०] जत् ¥ा कि] । कृष्ण-सधा जी० [म०] अधकारमय रात्रि । धियारी रात (२०)। कृणवेणी-सच्चा नी० [सं०] कनदी । दे॰' केए' ३ । कृणोदर-- संज्ञा पुं० [२] एक प्रकार का सप। करुणसखा--सज्ञा पुं० [सं०] अजुन । कृष्णोदु बरक---सज्ञा पुं॰ [ स० कृष्ण + उदुम्बरक ] एक प्रकारे । कणसखी-सच्चा श्री० [सं०] १ द्रौपदी । २ ज । गूलर ! कटगुर [] । कृष्णसार--सया पुं० [सं०] १ काला मृग । काला हिरन । करसा• कृष्न--सज्ञा ५० [सं० कृष्ण] दे० 'कृष्ण' । १०-- " मग सुभग यल । २. हुई। ३. शीशम का वृक्ष । ४ खैर का वृक्ष । काति, धनति गजराज गति, कुनै न एक मति जम्न कृष्णसारथि -संश पुं० [सं०] अजुन । जाहीं ।--मुर०, १० । १७५९ ।। कृष्णस्क–समा पुं० [सं० कृण घ] सुरती का पेड । कष्य--वि० [२०] कर्पण या नै के योग्य ( भूमि )। कृष्णा -या स्त्री० [सं०] १. द्रौपदी। २. पीपल । पिप्पली ३ दक्षिण कृस --वि० [सं० कृश] दे० 'कृ' ।। देश की एक नदी जो पश्चिमी घाट से निकलकर (मडली- कृसर-सुज्ञा पुं॰ [सं॰] ३० 'बुगर' [को॰] । पट्टम में ) वंगाल की खाड़ी में गिरती है। कुय्ग मा । कृथ्णु मान-सा ५० [सं० "3) व 'गान् । उ० --नहुने या वेणी । ४ कच्चे नौल की वटी। नीलवरी । ५ काली दाख । मृग मृदुने तन लान न पहू वने । ३५ फूलन की राशि में ६. काला जीरा । ७ अगर । ॐद (लकडी) । ६ का उचित न घर न कृतान - तना' पृ० ९१ (देवी) । एक प्रकार की जहरीली जौंक। १० पपरी कृसद --वि० [सं० फुदोदरी] १० दृशोदरी' । नाम का गधद्रव्य । ११. कुटकी । १२. राई १३ अग्नि की कृe -- संज्ञा पुं॰ [स० कृष्ण सुदेश ३ के पुर। थ्ण । छात्र जिल्लाको में से एक । १४. एक योगिनी । १५ काले पत्ते कृन्नना--संज्ञा स्त्री० [अ० वृ८गला! घुघची । पुजा । ३०-छाक की तुलसी । १६, अाँख की पुतली । चचुका हैनना ५ । कर ति पदम । -अनेकर्यि, पृ॰ २६ कृष्णगरु----सया पुं० [सं० कृष्णागु] काला अगर । काने रग का कृस्ना५---राजा नी० [२० प्ण] लो । उ००-फाप हुना अगर। उ०——ऊपर हैं कृष्णगर भरि भरि आरति कनेक मागधी तितं दुल होइ !-नै १६०, पृ० ५६ । कम !-छोट०, पृ० २२ ! के के--सजा सी० [नु.] विडियो का इप्टगुवरी । २. 6गढ़। कृष्णगुरु-स। पुं० [सं०] काला अगर | काला चंदन (खे० । | या प्रमतो पन्चक छ। यौ--कुणागुणवतफा= काने अगर को बरती। उ०--कृष्णागु ० प्रा०—रना । * धनी । वतिक जन च की स्वर्ण पान्न के ही अभिमान में ।-लहर, केचु प्रा--मा। पुं० [सं० किन्चितिक, प्रा॰ कैचो ] १ एक बर16t १० ६२ ।। का । कृष्णाचल-सी पुं० [सं०] १. वर्तक पर्वत । ( प्राचीन द्वारा विशेप-इनके मने 5 प्रकार हुने । २ ३ १f पत्र भी । इस पांव पर यौ ।) २. नीलगिरि पर्वत । इससे अधिक ना दोन ।। ३३६ वरीर में ही नहीं की।