पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५१२

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कृताह्वान १२८ कृत्या कृत्य कताहान–वि० [सं० कृत + अाह्वान] जिसे पुकारा बा ललकारा कृत्तिका-सा स्त्री॰ [सं०] १. माई नक्षत्रों में से तीन नक्षत्र। | गया हो (को०] । विशेप- इस नत्र में छह तारे हैं, जिनका सयुत प्राकार कतिसञ्चा ग्बी० [सं०] १. कारतूत। करनी । ३. कार्य । काम । अग्निशिखा के समान होता है । यह चद्रमा १) पन्नी ग्रोर ३ अधात । क्षति ।४ इद्रजाले । जादू । ५ गणित में कातिके ये का पालन फर नेवा मानी जाती है और इसकी दो रोमन अको फा घात । वर्गसृरुपा । ६ डाकिनी । ७ अधिष्ठात्री 'अग्नि' हैं । अनुरटुप जाति का एक छद, जिसमे वीस वीस अक्षरो के चार । यौ०-छत्तिफात' । कृतिकापुर। फुति कासुत = कनकेय । पर होते हैं । जैसे-रोज रोज राज गैल तें गुपाल ग्वाल ३ छकड़ा । वैसगाड़ी। तीन सात । वायु सेवनार्थ प्रति बाग जात प्राय ले सुफूल पाते । कृत्तिवास- सा पुं० [सं०] दे० 'कृत्तिवमा' । लाये के धरे सवै सुफल पति मोदयुक्त मातु हात । धन्य मान कत्तिवासान्सी पुं० [सं० फूतिवासस1 गिन् । महादे। मातु वाल वृत्त देखि हर्ष रोम रोम गति !-—(शब्द०)। ६. विशेष-- महादेव जी ने गजासुर को मार कर उमझी साल प्रौढ़ वीस की संख्या । है कटारी । १० रचना (को०) । ११ । | ली थी, इसी से उनका यह नाम पड़ा। चाकू । छु (को०)। १२ मारण । वेघ । हनन (को०) । कत्य-सा पुं० [सं०] १ कतव्य कर्म । वेदविहित पावश्यक कार्य । कृति-सज्ञा पुं० विष्णु ।। विशेप--बौदों के मत से ज्ञानानुसार कृत्ये चौदह प्रसार के होते कतिकर सज्ञा पुं० [सं०] १ (वीस हाथवाला ) रावण । २ हैं । यथा--(१) प्रतिसधि (२) भवाग, (३) अव जैन, | जादूगर (को॰) । (४) दर्शन, (५) श्रवण, (६) घाण, (७) शयन, (८) म्प, कतिझा--- संज्ञा स्त्री० [सं० कृत्तिका] ३० 'कृशिका'। (६) संप्रतच्छन, (१०) रतीर्ण , (११) उरयान, (१२) गम', कृतिकार---सी पुं० [सं० कृति = रचना + फार= फत] गद्य पथ प्रादि (१३) तदलवन ग्रोर (१४) च्यु। • इसके अतिरिक्त फाल•ि में रचना करनेवाला व्यक्ति । रचनाकार। काव्यस्रष्टा । नुसार उन्होंने इसके पाँव और भेद किए है---(१) पूर्व भारत उ०—कृति फी रूप कृतिकार के सामने पहले से ही उपस्थित कृश्य, (२) पश्चात भारत कृत्य, (३) प्रथमयाम कृर, (४) नही होता ।-पा० स० सि०, पृ० १ । मध्य मयाम कृत्य और (५) पश्चिमयाम कृत्य । जैनियो के कृती-वि० [स० कृतिन] १ कुशल । निपुण । २५ । उ०—कितने अनुसार कृय छह प्रकार के होते हैं--(१) दिनकृत्य (२) कृती हुए, पर किसने इतना गौरद पाया है ?--साकेत, पृ० रात्रि कृT, (३) पर्व कृत्य, (३) चातु मयि कृत्य, (५) सपर ३७२ । २ साधु । ३ पुण्यात्मा । ४ कुत फार्य । सफल कृत्य प्रौर (६) जन्मकृत्य ।। (को०) । ५ सौभाग्यशाली । भाग्यवान् (को०) । ६ अनुवर्ती । २. भूत, प्रेत यक्षादि जिन का पूजन अभिचार के निये होता है । अाज्ञाकारी (को०)। ३. 'यं । व्यवसाय । फर्म (को०)।४ प्रयोजन । लक्ष्य । के तो-सज्ञा पुं० च्यवन ऋषि के पुत्र और उपरिचर वसु के पिता उद्देश्य । कारण (को०) । ५ कर्मवाच्य कृदन के चार प्रत्यय का नाम । अनीय, एलिप, तथ्य र य (०) । केतु -- सा पुं० [सं० झनु ] दे॰ 'ऋतु' । उ॰—लागति है जाद कृत्यका-सा श्री० [सं०] १ वह स्त्री को हत्या प्रादि बड़े बड़े मय कर कठ नाग दिगपालन के, मेरे जान सोई कृतु कीरति तिहारी कार्य कर सकती हो । २ चुडेल । उाकिनी (को०)।। को ।—केशव प्र०, मा० १, पृ० १५३ । कुत्यकृत्य--वि० [सं० कृतकृत्य] ३० कृतकृत्य' । उ०—तदपि कृतोत्साह-वि० [सं०] १ उत्साहयुक्त । २ परिश्रमी । उद्योगी (को०)। तनक अभिमान के साथ | हम सच कृतकृत्य भए नाय' । कृतोदक-वि० [सं०] नहाया इअर । स्नात [को॰] । नद० नं, पृ० २०२ । कृतोद्वाह-वि० [सं०] जिसका विवाह हो चुका हो। विवहिन की। कस्यम –वि० [सं० कृश्रिम, प्रा० फित्तिम] दे० 'कथिम'। उ०कत्त-वि० [सं०] १ छिन । विभक्त । कदर हो । २ इच्छित । कृत्यम पट कला नाही, सकल रहित सोई । दादू निज मग अाफक्षित को ।। निगम, दूजा नहि कोई --दादू०, पृ० ५१०।। फत्तम (+- वि० [सं० कृत्रिम] दे॰ 'कृत्रिम' । उ०--- ना मैं कृत्तम कृत्यवाह- सा पुं० [सं०] करीय कार्य को सपन्न करनेवाला (को०] । । कम वखान । रसूल का कलमा जानौं ।-सुदर० ५०, कत्यविद् - विः [सं०] कर्तव्य कर्म जाननेवाला । कर्तव्य मे चतुर । भा० १, पृ० ३०३।। कुणले । निपुण कत्ति--- सज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ मृगचर्म । ३ चमड़ा। खाल । ३ कृत्या-सा स्त्री० [सं०] १ तत्र के अनुसार एक रागी, जिसे तात्रिक भोजपत्र । ४ कृत्तिका नक्षत्र । ५ भूर्ज वृक्ष (को०)। ६ गुह् । लोग अपने अनुष्ठान से उत्पन्न करके किसी शत्रु को विनष्ट मकान (को॰) । फरने के लिये भेजते हैं। यह बहुत भयक मानी जाती है । कत्ति - सच्ची पुं० [सं० कृत्य] दे० 'कृत्य' । उ०--तदपि केई तजि इसका वर्णन वेदों तक में आया है । २ अभिचार । ३ काम। तजि सव कृति । निर्मल करत चित्त की वृत्ति ।-नद० अ ०, कर्म (को०)। ४. जादू (को०) । ५. दुरदा या कर्कश स्त्री । पृ० २६६ ।। यौ॰—कृत्यादुषण । कत्तिकजि-सज्ञा पुं० [सं० कृत्तिकाजि] वह शकटाकार तिलक जो कृत्या कृत्य---वि० [सं०] करने और न करने योग्य फान । 'भन सौर अश्वमेघ यज्ञ मे घोड़े को लगाया जाता था। बुरा काम । । "