पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५०७

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कृत कूधिका जो किसी नदी नाले अदि में से पानी लाने के लिये वोदी फीर महा सर्व को मद तुरत । कुहू के के फरमा? कहीं छि मया हो । छोटी नहर । २ दे० 'कुल्हा' । कु भन वारन छारने पुरत-भुनाथ (शब्द॰) । कलिका-संवा स्त्री० [सु० वीणा वा सितार के नीचे का भाग । कुहा--संज्ञा पुं० [सं०] १ कुहरा' । कुलिनी-सुथा भी० [सं०] नदी । कही--सवा बी० [३०] वाज की जाति की एक प्रकार की शिकार कृली-सा धौ दिश०] एक प्रकार की बहुत छोटी मछली जो चिडि17 । बुहो। दक्षिण भारत की नदियों में होती है। कृतत्र- सया पु० [सं० कृन्तत्र] १. वंदे भाग । विभाग । २. कड़ा। कूनेचर- सी पुं० [सं०] दे॰ 'कुलचर'। चिप्पी ३,हले ०] । कुल्हन- क्रि० अ० [सं० कुन्य= फ्लेश] पीडामुचक शब्द करना । के तन--स्वधा पु० [६० पृन्तन] काटना । कतरना । खंड बुड करना । कत्वना । कराहनी । | टुकड़े टुकड़े करना (को०] । कुल्हा--सबा पुं० [सं० कोर= फोड, कोल अथवा देश॰] १ कोख के तनिका-- संज्ञा स्त्री० [सं० कृन्तनिका १ करनी । के ची । २ नीचे, कमर में पैड के दोनों ओर निकनी हुई हड्डियां । छोटा चाकू (को०] । मुहा०-कल्हा उतरना या सरकना= गिरने या किसी प्रकार के तन-सा स्त्री० [सं० कृन्तन ] दे० 'कृ तनिका' [फो०] । का ओघात लगने के कारण कूल्हे का अपने स्थान से कृक-सी पुं० [सं०] १ ग्रीवा । गला । २ नामि (कौ । हुट जाना । कुल्हा मटकाना = चूतड़ मटकाना । कृकण--सा पु० [३०] १. एक प्रकार की तीतर। २ एक कीड़ा। २ कुश्ती का एक पैच, जिसमें पहलवान सामने 'वड़े हुए विपक्षी ३. शिव का एक नाम (को०] । की पीठ पर दाहिनी तरफ से अपना दाहिना हाथ ले जाकर कृकर-सा पु० [सं०] १ सस्तक की वह वायु जिसके वेग से छींक उसका दाहिना जाँघिया पकड़ता है और अपने बाएँ हाव से अाती है । १ शिव । ३ चा । चश्य । ४ एक प्रकार का उसका दाहिनी पहुंचा पकड़कर घींचता हुया अपने कूल्हे पर पक्षी । ५वनेर का पेड़ । से लाद कर सामने विते गिराना है । कृकल- सपा पु० [सः ]६० 'कर' । कुल्ही--सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] पीठले (सोनारों की बोली) । कृकला–सच्चा श्री० [सं०] वही पीपर झिो] । कूवत--संथा भौ० [प्र कुवत] शक्ति । बल । जोर । ताकत । कृकलास-सज्ञा पुं० [सं०] गिरगिट । यौ०-कवतेजिस्मानी = शारीरिक शक्ति । कूवतेज़ = भुजबल ।। कृकवाकु-सच्ची पुं० [सं०] १ मग्र । २ मुन। ३ छिपकली [को०) । कुवतेबाह : रविकर्म की शयत 1 डूबते रूहानी = प्रामबल। कृकोटिका सच्चा स्त्री० [स०] का प्रोर गने का जो । घाँटी । उ०मनोवन । सुगढ़ पुष्ट उन्नत 'कारि को कवु कंठ सौभा मन मानति !-- तुलसी (शब्द०)। कुवर'--सम्रा पुं० [सं०] १ रथ का वह 'भाग जिसपर जूमा बाँध कृच्छ--वि० [सं० कृच्छ= कष्टसाध्य १ कप्टमाघ्य । उ०---तेज क जाता है । युगधर। इसी । उ०—किए हैमदंडन १ मेडने | प्रताप गाते कृच्छहू लखान नीको दीपन चढ़ा विचित्र चित्र, वने कीर मोर चार और मनभावते । कुवर सान ही। जिमि छनो है।-शकुंतला, पृ० ११० । अनूप रूप छतरी छजत तैसी, छज्जन में मोती लटकत छवि | कृच्छ - चश पुं० [सं०] १. कप्ट। दु । २ पाप । ३ मूत्रकृच्छ छावते ।-(शब्द॰) । २.रथ में रथिक के बैठने की स्यान ! रोग । ४. कोइ व्रत जिसमें पचगव्य प्राशन कर दूसरे दिन ३ कुवडा । ४ कुजका कूजा । ककून । उपवास किया जाये । जै, कृच्छतुपन । कूवर-- वि० मनोहर । सुदर। कृच्छ वि० १,फटमध्य । २१.प्टयुत् । ३.दुष्ट । वुरा (०)। कूवार सुद्धा पुं० [सं०] दे० 'कूपार' (को०)। | ४ पापी । पापात्मा [को०] । कूम-सबा पुं० [सं०] एक प्रकार के हवनीय देवता । कृच्छपराक-सया पुं० [सं०] १२ दिन तक निराहार रहने का व्रत । कृष्भा-संज्ञा पुं० [सं० कमाण्ड] १. फुम्हड।। २ पेठा । ३. वैदिक कृच्छतिकृच्छ---मज्ञा पुं० [सं०] २६ दिन तक दूध पर निर्वाह फरने काल के एक ऋपि । ४ एक प्रकार के पिशाच जो शिव के का व्रत ।। | गण हैं । ५ वाणासुर का प्रधान मंत्री । कूष्माडा-सया जी० [सं० फूहमाण्डा] नौ दुर्ग में चौथी दुर्गा । दुगई। विशेष—गौतम के मत से इस व्रत में दूध के स्थान पर पानी | का एक स ।। पीकर ही रहना चाहिए । | कृत् - वि [सं०] करने या बनानेवालो ! क । प्राय समासात में कमाडी-सुमी २ (मु० कूष्माण्ड] १ दुर्ग। २.यजुर्वेद की एक प्रयुक्त, जैने, ग्रथन् विदे] । | ऋचा, जिसके द्रष्टा कुमार श्रपि धे। कृत-सु वु० १ धनु के साथ मिलकर यि कुसल- सवा पुं० [सं० फुश] एक प्रकार की घास जित्तकै उनी का प्रादि बनाने वाने प्रत्यय । २, ३१ पत्र के योग से देना है। शद झड़ बनता है। [२०] । कूह- सच्चा श्री० [क] १.जिग्या; हायी की रियार । कृत'- वि० [R०] १ किंवा हुन् । संपादित । २ वनाप ठूग । २चीतृ । चिल्लाहट । उ---सन, सतावत हैं जग को हैं रचित । जैसे-तुल ३ मा । ३. संबंध रवृनेवासा ।